पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५५५

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५३४ वायुपुराणम् धनुगृहीत्वा बाणांश्च वसुधामायवली अस्यादनभयवस्ता गौर्भूत्वा प्राद्रचन्मही तां पृथुर्धनुरादाय द्रवन्तीमन्वधावत । स लोफान्ब्रह्मलोकादीन्गत्वा वन्यभयात्तदा ॥ ददर्श चाग्रतो वैन्यं फार्मुकोद्यतधारिणन् ज्वलद्भविशिखैर्बाणैर्दोप्ततेजसमच्युतम् । महायोगं महात्मानं दुर्धर्यममरैरपि । अलभन्ती तदा त्राणं चैन्यमेवान्वपद्यत । कृताञ्जलिपुटा देवो पूज्या लौकॅस्त्रिभिः सदा उवाच वैन्यं नाधर्मं स्त्रीमधे परिपश्यसि । कथं धारविता चापि प्रजा राजन्मया विना मयि लोकाः स्थिता राजन्मयेदं धार्यते जगत् । मवृते च विनश्येयुः प्रजा: पार्थिवसत्तम न मामर्हसि वै हन्तुं श्रेयश्चेत्त्वं चिकीर्षसि । प्रजानां पृथिवीपाल शृणु चेदं वचो मम उपायतः समारब्धाः सर्वे सिध्यन्त्युपक्रमाः । हत्वाऽपि मां न शक्तस्त्वं प्रजानां पालने नृप अनभूता भविष्यानि जहि कोपं महाद्युते | अवध्याश्च स्त्रियः प्राहुत्तिर्यग्योनिशतेष्वपि ॥ मत्वैवं पृथिवीपाल धर्मं न त्यक्तुमर्हसि ॥१५३ ॥१५४ ।।१५५ ।।१५६ ॥१५७ ।१५८ ॥१५६ ॥१६० ॥१६१ इस प्रकार शीघ्रतापूर्वक दौड़कर अपने समीप आने पर उस बलवान् ने उनको हितकामना से धनुष और वाणों को लेकर वसुधा को अतिशय पीड़ित किया। उसके पीड़न से संत्रस्त होकर पृथ्वी गो का रूप धारण कर बड़े जोरों से भगने लगी । भागती हुई उस गो रूप धारिणी पृथ्वी के पीछे राजा पृथु भी धनुष वाण लेकर दौड़े। पृथु के भय से संत्रस्त होकर पृथ्वी ब्रह्मलोक प्रभृति लोकों में घूम आई तव आगे उद्यत धनुष को धारण किये हुए पृथु को देखा । उस समय पृयु जलते हुए अति तीक्ष्ण वाणों को चमक से अतिशय तेजोमय हो रहा था । तब अपने त्राण का कोई अन्य उपाय न देख देवताओं से भी पराजित न होने वाले, परम योगी, अपने कर्त्तव्यपथ से च्युत न होने वाले पृयु की ही शरण मे वह गई ।१५२-१५५६। तीनो लोकों द्वारा सर्वथा पूजित पृथ्वी ने अंजलि बाँधकर चेनपुत्र पृथु से कहा, हे राजन् ! क्या तुम एक स्त्री के वर्ष करने मे पाप नहो समझ रहे हो ? मेरे विना तुम प्रजाओं का पालन किस प्रकार कर सकोगे | हे राजन् ! मुझमे हो समस्त लोक स्थित है, मैंने ही समस्त जगत् को धारण किया है । हे नृपसत्तम ! मेरे बिना सभी प्रजाएँ विनष्ट हो जायँगी, यदि तुम अपनी प्रजाओ का कल्याण करना चाहते हो तो मुझे मत मारो, मेरी बातें सुनो। उपाय द्वारा आरम्भ किये जाने पर सभी अध्यवसाय सिद्ध होते हैं, हे राजन् ! मुझे मारकर भी तुम प्रजाओं के पालन मे किसी प्रकार समर्थ नहीं हो सकते । १५६-१६०। हे अतिशय शोभासम्पन्न राजन् ! मैं अन्न रूप में परिणत हो जाऊँगी । तुम अपना क्रोध दूर करो । हे पृथ्वीपाल ! ऋषिमण पशु कीट, पतङ्ग आदि सैकड़ो तिर्यक् योनियो में भी स्त्री के वध का निषेध करते है, ऐसा मानकर तुम धर्म से च्युत न हो।'