पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४७०

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|प्तपञ्चाशोऽध्यायः ४५१ ।।४७ ४८ प्रणाशे त्वथ सिद्धीनामप्यासां च प्रवर्तनम् । आसन्मंत्रा व्यतीतेषु ये कल्पेषु सहस्रशः । ते सन्त्रा वै पुनस्तेषां प्रतिभाससमुत्थिताः ।४५ ऋचो यजूषि सामानि मंत्रावाथर्वणानि च। सप्तषभिस्तु ते शोक्ताः स्मार्त धर्मं मनुर्जगौ ॥४६ त्रेतादौ संहिता वेदाः केवला धर्मशेषतः। संरोधादायुषश्चैव व्यसन्ते द्वापरेषु ते ऋषयस्तपसा देवाः कलौ च द्वापरेषु वै । अनादिनिधना दिव्याः पूर्वं सृष्टः स्वयंभुवा सधर्माः सप्रजाः साङ्गा यथाधनं युगे युगे। विक्रियन्ते सनानार्था वेदवादा यथायुगम् ४e आरम्भयज्ञाः क्षत्रस्य हविर्यज्ञा विशांपतेः । परिवारयज्ञाः क्षुद्रस्तु जपयज्ञा द्विजोत्तमाः ५० तदा प्रमुदिता वर्णास्त्रेतायां धर्मपलिताः । क्रियावन्तः प्रजावन्तः समृद्धः सुखिनस्तथा ॥ ५१ ब्राह्मणाननुवर्तन्ते क्षत्रियाः क्षत्रियाग्दिशः । वैश्यानुर्वातनः शूद्राः परस्परमनुव्रताः ५२ शुभः प्रवृत्तयस्तेषां धर्मा वर्णाश्रमास्तथा। संकल्पितेन मनसा वचोक्तेन स्वकर्मणा । त्रेतायुगे त्वविकलः कर्मारम्भः प्रसिध्यति ५३ हुआ । वे सहस्रो मन्त्र बीते हुये कल्पों में विद्यमान थे, उन्हीं ऋषियों को प्रतिभा से उनका पुनः आविर्भाव हुआ ।४२-४५। ऋक्, यजुः साम एवं आथवण-इन सभी मन्त्रों को सातों ऋषियो ने प्रचारित किया और स्मातं घर्म का उपदेश स्वायम्भुव मनु ने किया। त्रेता के आदिम काल में वेद अति सक्षिप्त केवल धर्म तथा कर्म काण्ड से युक्त थे, द्वापर युग में आयु की अल्पता एवं विघ्नपूर्णता के कारण उनका विभाग किया गया। कलियुग तथा द्वापर के आदि काल में सर्वप्रथम स्वयम्भू ब्रह्माजी ने तपस्या के बल से दिव्य गुण युक्त आदि अन्त विहीन ऋषियों तथा देवताओं की सृष्टि की ४६-४८। प्रत्येक युग में समान अर्थ वाले वेदो के वाक्य समूह युगो के स्वभाव के क्रम से धर्म, प्रजा एवं अपने विविध अगों समेत विकार को प्राप्त हो जाते है । क्षत्रिय लोगों का उद्योग यज्ञ, वैश्यों का हवनीय यज्ञ, शूद्रों का तीनों श्रेष्ठ वर्गों की सेवा रूप यज्ञ तथा ब्राह्मणों का जप यज्ञ प्रधान माना गया था। उस त्रेता युग मे धर्म से रक्षित ब्राह्मणादि चारों वर्षों के लोग अ नन्द युक्त रहते थे। वे सर्वदा सत्कर्मपरायण, सन्तानयुक्त, समृद्ध तथा सुखी रहते थे ।४६५१। क्षत्रिय लोग ब्राह्मणों की आज्ञा का पालन एव उनकी सेवा एवं शुश्रूषा में तत्पर रहते थे, इसी प्रकार वैश्य लोग क्षत्रियों की तथा शूद्र लोग वेश्यों की आज्ञा का पालन करते थे । अर्थात् सभी एक दूसरे की सुख सुविधा का ध्यान रखते थे । सभी वर्णों के लोगों की कल्याणमय कश्यों मे प्रवृत्ति रहती थी, सभी लोग वर्णाश्रम धर्म क' पालन करते थे । उस त्रेता युग में मन के संकल्प करने से, वचन कहने से तथा अपने कर्मों द्वारा सम्पूर्ण कार्यं अविकल रूप से सम्पन्न हो जाते थे, अर्थात् सबकी मनसा, वाचा कर्मणा कार्यसिद्धि होती थी ।५२-५३ । आयु, बुद्धि, बल, स्वरूप,