पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४५६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

षट्पञ्चाशोऽध्यायः ४३७ ।।७ ८ स गच्छति तदा द्रष्टुं दिवाकरनिशाकरौ । अमावस्याममावास्यां मातामहपितामहौ । अभिवाद्य तदा तत्र कालपेक्षः प्रतीक्षति(ते ) प्रसीदमानात्सोमाच्च पित्रर्थं तत्परिस्रवात्। ऐलः पुरूरवा विद्वन्मासि मासि प्रयत्नतः । उपास्ते पितृमन्ते तं ससोमं स दिवा स्थितः द्विलवं कुहुमात्रं तु ते उभे तु विदार्य सः। सिनीवालीप्रमाणेन सिनीवालीमुपासकः । कुहुमात्रां कलां चैव ज्ञात्वोपास्ते कुटुं पुनः। स तदा भानुमत्येककालावेसी प्रपश्यति १० सुधामृतं कुतः सोमाप्रस्रवेन्मासतृप्तये । दशभिः पवभिश्चैव सुधामृतपरिस्रवैः ११ कृष्णपक्षे तदा पीत्वा दुह्यमानं तथांऽशुभिः। सद्यः प्रक्षरता तेन सौम्येन मधुना च सः १२ निर्वापणायै दत्तेन पित्र्येण विधिना नृपः। सुधामृतेन राजेन्द्रस्तर्पयामास वै पितृन् ।। सौम्या बहषदः काव्या अग्निष्वात्तास्तथैव च। ॥१३ ऋतुरग्निस्तु यः प्रोक्तः स तु संवत्सरो मतः । जज्ञिरे चूतवस्तस्मादृतुभ्यवsऽर्तवश्च ये ।।१४ आर्तवा ह्यर्धमासाढ्याः पितरो ह्यनुदसूनवः । ऋतुः पितामहा मासा ऋतुश्चैवाब्दसूनवः १५ को नाना पुरूरवा अपने तथा पितामह सूर्य तथा चन्द्रमा को देखने था, और उन्हें कर समय " " " जाता प्रणाम का प्रतीक्षा करता हुआ स्थित रहता था । प्रसन्न हुए चन्द्रमा से पितरों के लिए अमृत का परिस्रवण होता था ॥६-७३इला का पुत्र विद्वान् पुरूरवा इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक प्रत्येक मास की अमाव्रास्या को स्वर्गलोक में उपस्थित रहकर पितरों समेत चन्द्रमा की उपासना करता था। दो लF१ जुहु मात्र पर्यन्त ही वे दोनों ( पितर और सोम ) रहते हैं अर्थात् कव्य ग्रहण करते हैं, अतः सिनीवाली के प्रमाणकाल के भीतर ही सिनीवाली का प्रेमी उपासक पुरूरवा चतुर्दशी युक्त अमावास्या तथा प्रतिपदा युक्त अमावास्या—इन दोनों को भली भाँति उपासना योग्य समझकर अमावास्या और कुहू की उपासना करता था, उस समय वह भानुमती (सूयंयुक्त अमावास्या) के एक काल की प्रतीक्षा करता हुआ वहाँ निवास करत था ।८१०। पितरों की एक मास की तृप्ति के लिए चन्द्रमा से सुधामृत का प्रस्रवण होता है । कृष्णपक्ष में पन्द्रह सुधामृत की प्रस्रवण करने वाली सूर्य की किरणों द्वारा चन्द्रमा से दुहे गये सुधामृत का पान होता है। नृपतिवर पुरूरवा इस शीत्र स्त्रवित चन्द्रमा के अमृत द्वारा पितरों की विधि से निर्वापण कर पित्तरों को तृप्त करता था, सोम्य बर्हिषद, काव्य और अग्निष्वात्त, ये पितर हैं ।१११३ ऋतु जो अग्निं कहा गया है, वही संवत्सर माना गया है उसी से ऋतुगणों की उत्पत्ति हुई, उन ऋतुगणों से आतंवों की उत्पत्ति हुई । वे आर्तव अर्धमास नाम से प्रसिद्ध वर्ष के पुत्र पिता कहे जाते है । अऋतुगण पितामह हैं, वे भी मास नाम से प्रसिद्ध तथा वर्षा के पुत्रगण १. दो काष्ठा, अर्थात् ३६ निमेष का अल्प समय ।