पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४५०

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पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः ४३१ २८ २६ तथ ब्रह्म च अन्तश्व न बान्तं तस्य पश्यति । समागतो मया सर्वं तत्रैव च महाम्भसि ।।२७ ततो विस्मयमापन्नावुभौ तस्य महात्मनः। मायया मोहितौ तेन नष्टसंज्ञौ व्यवस्थितौ ततो ध्यानगतं तत्र ईश्वरं सर्वतोमुखम् । प्रभवं निधनं चैव लोकानां प्रभुमव्ययम् ब्रह्माऽञ्जलिपुटो भूत्वा तस्मै शर्वाय शूलिने । महाभैरवनादाय भीमरूपाय दंष्ट्रिणे । अव्यक्ताय महान्ताय नमस्कारं प्रकुर्महे ३० नमोऽस्तु ते लोकसुरेश देव नमोऽस्तु ते भूतपते सहान्त । नमोऽस्तु ते शाश्वत सिद्धयोने नमोऽस्तु ते सर्वजगत्प्रतिष्ठ ।।३१ परमेष्ठि (ष्ठी) परं ब्रह्म अक्षरं परमं पदम् । श्रेष्ठस्त्वं दमदेवश्च रुद्रः स्कन्दः शिवः प्रभुः ॥३२ त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोंकारः परं पदम् । स्वाहाकारो नमस्कारः संस्कारः सर्वकर्मणाम् ।।३३ स्वधाकारश्च जाप्यश्च व्रतानि नियमास्तथ। वेदा लोकाश्च देवाश्च भगवानेव सर्वशः ३४ आकाशस्य च शदब्दस्त्वं भूतानां प्रभवाव्ययम् । भूमेर्गन्धो रसश्चापां तेजोरूपं महेश्वर ॥३५ वायोः स्पर्शश्च देवेश वपुश्चन्द्रसम(नस) स्तथा । बुधो ज्ञानं च देवेश प्रकृतौ वजमेव च ॥३६ परन्तु उसका शन्त न देख सका । तव तो सचमुच ही मैं डर गया । उधर ब्रह्मा की भी यही गति थी । वे भी चलते-चलते थफ गये परन्तु पार न पा सके। तब विवश हो वे भी लोट पडे और मेरे ही साथ उसी महासागर में निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचे । हम दोनों उस महात्मा शिव की माया से मोहित कि कर्तव्य विमूढ से हो गये, चेतना लुप्त सी हो गई । निदान उस विश्वतोमुख, अव्यय, शक्तिशाली लोक के स्रष्टा एवं विनाशक प्रभु शंकर का ध्यान करने लगे और अञ्जलि बाँधकर उस शर्वयूली, महाभैरव शव्द करने वाले, भीमरूप, दी, अव्यक्त और महान् शंकर की स्तुति करने लगे ।२६३०। हे देव ! लोक और दैव दोनों के ईश नमस्कार है. भूतपति ! महान्त ! आपको नमस्कार है. शश्वत ! सिद्ध योनि ! ! आपको आपको नमस्कार है । सब जगत् को प्रतिष्ठा करने वाले ! नमस्कार है ।३१। आप परमेष्ठी, परब्रह्म, अक्षर और परम पद हैं। आप श्रेष्ठ हैं, वामदेव, रुद्र-वन्द शिव और प्रभु आपही है, यज्ञ, वषट्कार, ओंकार और परमपद हैं, स्वाहाकार, नमस्कार, सव कर्मों के संस्कार, स्वधाकार, जपनीयव्रत, नियम, वेद, लोक, देव और सर्वव्यापी भगवान् आप ही है । आकाश का शव्द गुण, समस्त प्राणियों के अव्यय आदि कारण आप ही हैं ।३२-३४६ महेश्वर ! आप भूमि में गन्घस्वरूप, जल में रस ओर तेजोहण हैं । वायु का स्पर्श गुण एवं गन्द्रमा रूप आप ही हैं । देवेश ! आप प्रकृति के बीजरूप से वर्तमान हैं । आप ही ज्ञानरूप और शनी भी हैं, आप समस्त भूतों के वनानेवाले और अन्त करनेवाले काल अन्सक (यम) हैं, .