पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४४४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः ४२५ ६७ यक्षगन्धर्वभूतानां पिशाचोरगरक्षसाम् । धृतं कण्ठे विषं घोरं नीलकण्ठस्ततो ह्यहम् &४ तत्कालकूटं विषमुग्रतेजः कण्ठ मया । पर्वतराजपुत्रि । निवेश्यमानं सुरदैत्यसंघो दृष्ट्वा परं विस्मयमाजगाम &५ ततः सुरगणाः सर्वे सदैत्योरगराक्षसाः । ऊचुः प्राञ्जलयो भूत्वा मत्तमातङ्गगामिनि &६ अहो वीर्यपराक्रमस्ते पुनर्योगबलं तथैव । बलं अह। अहो प्रभुत्वं तव देवदेव गङ्गाजलास्फालितमुक्तकेश त्वमेव विष्णुश्चतुराननस्त्वं त्वमेव मृत्युर्वरदस्त्वमेव। त्वमेव सूर्यो रजनीकरश्व त्वमेव भूमिः सलिलं त्वमेव त्वमेव यज्ञ नियमस्त्वमेव त्वमेव भूतं भविता त्वमेव। त्वमेव चाऽऽदिनिधनं त्वमेव स्थूलश्च सूक्ष्मः पुरुषस्त्वमेव त्वमेव सूक्ष्मस्य परः परस्य त्वमेव वह्निः पवनस्त्वमेव । त्वमेव सर्वस्य चराचरस्य लोकस्य कर्ता प्रलये च गोप्ता १०० इतीदमुक्त्वा वचनं सुरेन्द्राः प्रगृह्य सोमं प्रणिपत्य मूध्नी । गता विमानैरनिगृह्यवेगैर्महात्मनो मेरुमुपेत्य सर्वे १०१ इत्येतत्परमं गुह्यं पुण्यात्पुण्यतरं महत् । नीलकण्ठेति यत्प्रोक्तं विख्यातं लोकविश्रुतम् ॥१०२ ही हमने उस घोर विष को कण्ठ में धारण कर लिया । सुमुखि ! गिरिराज पुत्रि ! तब से हम नीलकण्ठ कहलाते हैं। पर्वतराजपुत्रि ! उस कालकूट के समान तेज विष को जब हमने कण्ठ मे रख लिया तव देव और देखकर विस्मित गये ।e३-७५ । गजगामिनि ! तब सभी दैत्य-उरग-राक्षस और दानव यह अत्यन्त हो देवगण -हाथ जोड़कर बोले—अहो, आपका बल, वीर्य और पराक्रम घन्य है, आपका योगवल और प्रभुत्व धन्य है। देवदेव ! गंगाजल की तरफ़ से आपके मस्तक का केशपाश खुल गया है । आप विष्णु है, ब्रह्मा हैं मृत्यु है और वरदाता भी है । आप सूर्य, चन्द्र, भूमि, जल, यज्ञ, नियम, भूत, भविष्य, आदि, अन्त , स्थूल, सूक्ष्म और पुरुष है । आप सूक्ष्मातिसूक्ष्म, परात्पर, वह पवन, चराचरात्मक जगत् के कर्ता और प्रलय काल में सब के रक्षक हैं ।e६१००। देवों ने इस प्रकार स्तुति की ओर सिर झुका कर महादेव को प्रणाम किया । फिर वे सब महात्मा अपने-अपने वेगगामी विमानों पर चढकर मेरुप्रस्थ की ओर चले गये ।१०१यह लोक विद्युत, विख्यात नीलकण्ठोपाख्यान परम गुह्य और पवित्रतम है ।१०२ ५४