पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४३१

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४१२ ॥८८ स्वर्भानोस्तामसं स्थानं भूतसंतापनालयम् । विज्ञेयस्तारकाः सर्वास्त्वमयंस्त्वेकरश्मयः । आश्रयः पुण्यकीर्तानां सुशुक्लोएचैव वर्णतःकल्पादौ वेदनिमिताः ॥८६ । अॅनतोयात्मिका ज्ञेयाः उच्दत्वाद्दृश्यते शत्रुमभिव्यक्तैर्गभस्तिभिः। तथां दक्षिणमार्गस्थो नीवीवीथीसमाश्रितः । ६० ॥६१ भूमिलेखावृतः सूर्यः पूणिमावास्ययोस्तथा । न दृश्यते यथाकालं शीघ्रमस्तमुपैति च ॥६२ तस्मादुत्तरमार्गस्थो ह्यमावस्यां निशाकरः । दृश्यते दक्षिणे मार्गे नियमाद्दृश्यते न च lf&३ ज्योतिषां गतियोगेन सूर्याचन्द्रमसावुभौ । समानकालस्तमयौ विषुवत्स समोदयौ उत्तरासु च वीथीषु व्यन्तरास्तमयोदयौ । पौणि(पूर्णा)मावास्ययोर्तेयो ज्योतिश्चक्रानुवर्तिनौ €४ दक्षिणायनमार्गस्थो यदा भवति रंश्मिवान् । तदा सर्वग्रहणां स सूर्योऽधस्तात्प्रसर्पति ६६ विस्तीर्णं मण्डलं कृत्वा तस्योर्वचरते शशी । नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नं सोमाद्ध्वं प्रसर्पति नक्षत्रेभ्यो बुधश्चोध्र्व बुधाद्वै वृहस्पतिः । तस्माच्छनैश्वरश्चोध्र्वं तस्मात्सप्तषमण्डलम् । ऋषीणां चैव सप्तानां श्रुब ऊध्र्व व्यवस्थितः द्विगुणेषु सहनषु योजनानां शतेषु च । ताराग्रहान्तराणि स्युरुपरिष्टाद्यथाक्रमम् ६५ ।।६७ ६८ जीवजन्तुओ को पीड़ा पहुँचाने वाला और तमोमय है। इनके बाद जो तारे है, वे एक किरणवाले हैं और उनका स्थान जलमय है । ये तारे पवित्र कीfतवालों के आश्रय है, शुक्लवण हैं है, और कल्प जलमय के आदि काल मे विधाता द्वारा वेदोक्त विधान से निर्मित हुए है ।८६-८९। भी ये बहुत दूर रहने पर स्पष्ट किरणो द्वारा शीघ्र दीखने लगते है । सूर्य जच दक्षिणायन होकर नागवीथी में विचरण करते हैं, तब भूम लेख द्वारा आवृत होकर अमावास्या और पूणिमा में नहीं मालूम पड़ते है, वयोकि इनका अस्त शीघ्र ही हो जाता है (६०-६१। चन्द्रमा जब उत्तरीय मार्ग में विचरण करते हैं, तब ये दीख पड़ते हैं, किन्तु दक्षिण होते हो कभी ये दीख पडते है और कभी नहीं ।४२। नक्षत्रों की गति के अनुसार सूर्य और चन्द्र दोनों ही जन विषुवत् रेखा पर आते है; तव दोनों का ही अस्त और उदय समान काल में ही होता है । फिर उत्तरवीथी मे जब वे वर्तमान रहते हैं, तब पूणिमा और अमावास्या में ज्योतिश्चक्र का अनुवर्तन करने दोनों के अस्त वाले उन और उदय काल में अन्तर आ जाता है । जब तेजस्वी सयं दक्षिण दिशां के मार्ग में गमन करते हैं, तब वे सब प्रहो के नीचे से चलते है ।e ३-५। उस समय चन्द्रमा सर्यों के ऊपरी भाग में अपने मण्डल का विस्तार कर गमन करते है और नक्षत्र मण्डल चन्द्रमा से और ऊपर विचरण करता है । नक्षत्र से ऊपर बुध, बूध से ऊपर बृहस्पति, बृहस्पति से ऊपर शनि, शनि से ऊपर सप्तर्षि मण्डल और सप्तर्षिमण्डल से ऊपर घू,व रहते हैं । ९६8७। तारा-ग्रहों का अन्तर ऊपर की ओर यथाक्रम से दो लाख योजनों का है । चन्द्र, सूर्य और प्रह आदि

  • अत्राऽऽमनेपद छन्दोनुरोधात् ।