पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३७९

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३६ जनस्तपस्तथा सत्य एतावांल्लोकसंग्रहः । एतावानेव विज्ञेयो लोकान्तश्चैव तत्परः ॥१४६ कुम्भस्थायी भवेद्यादृक्प्रतीच्यां दिशि चन्द्रमाः । आदितः शुक्लपक्षस्य वपुरण्डस्य तद्विधम् १५० अण्डानामीदृशानां तु कोटयो ज्ञेयाः सहस्त्रशः । तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्च कारणस्याव्ययात्मनः ।। काररै शाकृतैस्तत्र ह्यावृतं अतिसप्तभिः १५१ दशाधिक्येन चान्योन्यं धारयन्ति परस्परम् । परस्परावृताः सर्वे उत्पन्नश्च परस्परात् ॥१५२ अण्डस्यास्य समन्तात्तु संनिविष्टो घनोदधिः । समन्ताद्येन तोयेन धार्यमाणः स तिष्ठति ॥१५३ बाह्यतो घनतोयस्य तिर्यगूर्वानुमण्डलम् । धार्यमाणं समन्तातु तिष्ठते धनतेजसा १५४ अयोगुडनिभो वह्निः समन्तान्मण्डलाकृतिः । समन्ताद्धनवातेन धार्यमाणः स तिष्ठति । घनवयुस्तथाऽऽकाशं धारयाणस्तु तिष्ठति १५५ भूतादिश्च तथाऽऽकाशं भूताखं चाप्यसौ महान् । सहन्व्याप्तो ह्यनन्तेन अव्यक्तेन तु धार्यते ॥१५६ अनन्तमपरिव्यक्तं दशधा सूक्ष्म एव च । अनन्तप्तकृतात्मानमनादिनिधनं च तत् ॥१५७ अतीत्य परतो घोरमनालम्बमनामयम् । नैकयोजनसाहस्त्रौ विप्रकृष्टं तमोवृतम् ॥१५८ तम एव निरालोकनमर्यादमदेशिकम् । देवानामप्यविदितं व्यवहारदिवीजतम् ॥१५६ के विषय मे इतना ही ज्ञान प्राप्त है, इसलिए इतने ही लोकों को समझना चाहिए । इसके बाद कुछ भी नही है ।१४८-१४६ पङिचम दिशा में जिस प्रकार शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को चन्द्रमा कुम्भस्थायी होकर रहते है, उसी प्रकार अण्ड का शरीर है । इस प्रकार से हजारों करोड़ों अण्ड है, जो अव्ययात्मा कारण के ऊपर, नीचे और वीच मे स्थित है । ये प्रत्येक सातसात प्रकृत कारणों द्वारा आवृत है ।१५०१५१" इनमे एक दूसरे से दस गुने बडे है और हर एक दूसरे को धारण किये हुये और ढंके हुए है; क्योकि सभी एक दूसरे की सहायता से उत्पन्न हुए हैं । इन अण्डों के चारों ओर घनीभूत सागर इस प्रकार अवस्थित है कि उसके जल द्वारा ही सभी धारण कर लिये गये हैं और इस घनीभूत जल का भी जो ऊँचा या तिरछा मण्डल है, वह बाहर की ओर से घनीभूत तेज के द्वारा धारण कर लिया गया है ।१५२१५४ यहाँ मया लोहगोलक की तरह् मण्डलाकार होकर अग्नि इसके चारो ओर है, जो घनीभूत वायु के आधार पर स्थित है । इसी घनीभूत वायु ने आकाश को भी धारण किया है ।१५५। आकाश भूतादि महान् को और महान् भूतादि को धारण किये हुए है और यह महन् अव्यक्त अनन्त द्वारा व्याप्त है । यह अपरिव्यक्ती अनन्त दस प्रकर का है–सूक्ष्म, अकृतात्मा अनादिनिधन, असीम, घोर, अनालम्ब, अनामय, वहु सहस्र योजन दूरस्थ, अन्धकाराच्छन्न, अन्धकार की भाँति अदर्शनीयनिःसीम, अदेशिक, देवों के द्वारा भी