पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३०१

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२८२ वयुपुराणम् २० २१ २२ २३ २४ ।।२५ फलैः कनकसंकाशैर्महास्वादैः सुगन्धिभिः । हठ्ठम्भप्रमाणैश्व तनुशाखः समन्ततः गन्धर्वकिनरा यक्षा नागा विद्याधरास्तथा । पिबन्याम्ररसं तत्र सुस्वदु ह्यमृतोपमम् तत्राऽऽन्नरसपीतानां सुदितानां महात्मनाम् । शूर्यन्ते हृष्टतुष्टानां नादास्तस्मिन्महावने समूलस्याचलेन्द्रस्य वसुधारस्य चान्तरे । समासुरभिपूर्णाढ्या विहङ्ग रुपशोभिता त्रिंशद्योजनविस्तीर्णा पञ्चाशद्योजनायता । तत्र विल्वस्थली विश्राः शुद्धा निन्फलद्रुमः सुस्वादैवनुमनिभैः फलैबल्वैर्महपमैः। शर्यमाणैदश“श्व प्रक्लिन्नतलमृत्तिकाः तां स्थलीमुपजीवन्ति यक्षगन्धर्वफिनरः । सिद्धा नागाश्व बहशं नित्यं बिल्वफलाशिनः अन्तरे वसुधारस्य रत्नधारस्य चयन्तरे । त्रिशद्योजनविस्तीर्णशयनं शतयोजनम् सुगन्धं किंशुकवनं नित्यं पुष्पितपादपम् । पुष्पलक्ष्म्यावृतं भाति प्रदीप्तमिव सर्वतः यस्य गन्धेन दिव्येन वास्यते परिमण्डलम् । समग्रं योजनशतं काननानि समन्ततः तत्सिद्धचारणगणैरप्सरोभिश्च सेवितम् । रम्यं तीकशुकवनं जलाशयविभूषितम् तत्राऽऽदित्यस्य देवस्य दीप्तमायतनं महत् । मासे मासेऽऽवतरति तत्र सूर्यः प्रजापतिः २६ २७ ।।२८ २६ ।।३० ३१ सुशोभित उस वन के वृक्ष की शाखाएँ भी एक-से-एक बढ़कर हैं । जिनमें सोने की तरह पीलेसुगन्धित और घड़े के बराबर वड़े-बड़े रसदार फल लगे हुये हैं । १६-२०। उस आत्र फल के मुस्वादु और अमृतोपम रस तो यक्ष गन्धर्व, किन्नर, नाग, विद्याधर आदि बड़े चाव से पिया करते है । वहाँ आम्न के रस को पीकर प्रसन्नहृदय महात्मागण सन्तुष्ट होकर सदा आनन्द इवनि किया करते हैं जो डवनि उन वन मे सदा सुनाई देती है ।२१-२२। विप्रो । समूल और वमृघार पर्वतों के बीच एक बिल्वस्थलं है, जो समतल, सुगन्ध से परिपूर्णं शुद्ध और फल के भार से झुके हुये वृक्ष से सशभित है । वह तीस योजन लम्वी और पचास योजन चौड़ है । खगकुल वहाँ सर्वदा कलरव किया करते है । सूगै को तरह लाल सुस्वादु और बडे बडे वेल गिर गिर कर वहाँ की भूमि को गीली वनाये रखते है । ३-२५ वहाँ गन्धर्व , सिद्धनाग । पर यक्ष, किन्नर, आदि वहुतेरे जीव नित्य बिल्वफल को खकर ही जीवन बिताते है । वसुधार और रत्नधर पर्वतो के बीच तीस योजन चौडा और सौ योजन लम्बा एक किशुक वन ( पलश वन ) है । वहाँ के वृक्ष सदा पुष्पित और सुगन्धित रहते हैं और मूल की शोभा से सदा जगमगाते रहते है ।२६२८। फूलों की दिव्य गन्ध से वहाँ का प्रदेश सुवासित होता रहता है । उस वन भूमि की कोन बात कहे सौ योजन दूर तक वह गन्ध फैली रहती है । उस मनोहर किशुक वन की शोभा जलाशय और बढ़ा देता है, जहाँ सिद्ध-चारण और अप्सराएँ सदा निवास किया करती है। वहाँ भगवान् सूर्य देव का एक सुविशाल देदीप्यमान भवन है, जहाँ प्रजापति सूर्य प्रत्येक मास मे उतरा करते है ।२४३१। समय का विभाग करने वाले सहन किरणधारी सुरश्रेष्ठ, सब देव