पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२८१

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२६२ वायुपुराणम् २६ २७ नीलश्च निषधश्चैव ताभ्यां हीनास्तु येऽपरे । श्वेतश्च हेमकूटश्च हिमवाञ्शृङ्गवांश्च यः २५ नवतिद्वशतिद्वौ सहस्राण्यायतास्तु ये । तेषां मध्ये जनपदास्तानि वर्षाणि सप्त वै संपातविषमैस्तैस्तु पर्वतैरावृतानि च। संततानि नदीभेदैरगम्यानि परस्परम् । वसन्ति तेषु सत्त्वानि नानाजातीनि भागशः इदं हैमवतं वर्षे भारतं नाम विश्रुतम् । हेमकूटं परं तस्मान्नाम्ना किंपुरुषं स्मृतम् ।।२८ नैषधं हेमकूटं तु हरिवर्षे तदुच्यते । हरिवर्षात्परं चैव मेरोश्च तविलावतम २६ इलावृतप (तापरं नीलं रम्यकं नाम विश्रुतम् । रम्यास्परतरं श्वेतं विभुतं तद्धिरण्मयम् । हिरण्मयात्परं चापि शुङ्गवांस्तु कुरु स्मृतम् ।।३० धनुःसंस्थे च विज्ञेये द्वे वर्षे दक्षिणोत्तरे । दीर्घाणि तत्र चत्वारि मध्यमं तदिलावृतम् अर्वाक्च निषधस्याथ वेद्यधं दक्षिणं स्मृतम् । परं नीलवतो यच्च वेद्यर्ध तु तदुत्तरम् । वेद्यर्थो दक्षिणे त्रीणि वर्षाणि त्रीणि चोत्तरे ३२ तयोर्मध्ये तु विज्ञेयं मेरुमध्यमिलावृतम् । दक्षिणेन तु नीलस्य निषधस्योत्तरेण तु ३३ उद्यतो महशैलो माल्यवान्नाम पर्वतः। योजनानां सहस्त्ररुरानीलनिषधा यतः । [*आयामतश्चतुस्त्रिशत्सहस्राणि प्रकीतितः ३१ ३४ आदि है, वे छोटे है । इन पर्वतों का परिमाण वयासी हजार वानवे योजनों का है। उनके बीच जो देश है, वे सात भागों में विभक्त हैं। वे सब देण दुर्गम पर्वतों से घिरे हुये हैं। और अनेकानेक नदियो से परस्पर अगम्य हैं । वह नाना जाति के जीव विभाग क्रम से निवास करते है |२५-२७ यह हैमवत वर्ष ( देश ) भारत के नाम से विख्यात है । इसके आगे हेमकूट और हेमकूट के आगे किपुरुष देश है ।२८। नेपघ हेमकूट हरि वर्ष कहलाता है । हर वर्ष और मेरु के आगे इलाधृत है । के आगे नील रम्यक देश है ।२e इलावृत रम्यक के. आगे श्वेत देश है, जो हिरण्मय भी कहलाता है । हिरण्मय के आगे शृङ्गवान् है, जो कुरु कहलाता है ।३०दक्षिणोत्तर दिशाओं के दो देश धनुषाकार में स्थित हैं। वहाँ चार बड़ेबड़े देश है; किन्तु इलावृत मध्यम है ।३१निषध-पर्वत के पूर्वी भाग मे दक्षिण आधी वेदी है और नील पर्वत के पर भाग मे उत्तर आधी वेदी है । दक्षिण वेद्यधं मे तीन और उत्तर वेद्यर्द्ध में भी तीन देश स्थित हैं ।३२। उन दोनों के बीच अर्थात् नील के दक्षिण और निपध के उत्तर मेरु के मध्य इलावृत स्थित है । महाशैल मल्यवन् नाम का पर्वत उत्तर दिशा में फैला हुआ है । निषध और नील पर्वतों से यह हजार योजन उन्नत है इसका विस्तर तैतालीस

  • धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति ।