पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२६५

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२४६ वायुपुराणम् १४ ७ ८ तस्मात्तु अक्षरादेव पुनरन्ये प्रजज्ञिरे । चतुर्दश महात्मानो देवानां ये तु देवताः ३ तेषु सर्वगतएचैव सर्वगः सर्वयोगवित् । अनुग्रहय लोकानामादिमध्यान्त उच्यते सप्तर्षयस्तथेन्द्रा ये देवाश्च पितृभिः सह । अक्षरान्निःसृतः सर्वे देवदेवान्महेश्वरात् ।५ इहामुत्र हितार्थाय वदन्ति परमं परम् । पूर्वमेव मयोक्तस्ते झालस्तु युगसंक्षितः ।।६ कृतं त्रेत द्वापरं च युगादिः कलिना सह । परिवर्तमानैस्तैरेव भ्रममाणेषु वनंवत् देवतास्तु तदोद्विग्नाः कालस्य वशमागतः । न शक्नुवन्ति तम्मानं संस्थापयितुमात्मना तदा ते वार्यता भूत्वा अदौ मन्वन्तरस्य वै । ऋषयश्चैव देवाश्च इन्द्रश्चैव महातपाः समाधाय मनस्तीव्र सहस्र परिवत्सरान् । प्रपन्नास्ते महादेवं भीतः कालस्य वै तदा १० अयं हि कालो देवेशश्चतुर्युतिश्चतुर्मुखः । कोऽस्य विद्यान्महदेव अगाधस्य महेश्वर ११ अथ दृष्ट्वा महादेवस्तं तु कालं चतुर्मुखम् । न भेतव्यमिति प्राह को वः शुभः प्रदीयताम् ॥१२ तत्करिष्याम्यहं सर्वं न वृथाऽयं परिश्रमः । उवाच देवो भगवान्स्वयं कालः सुदुर्जयः १३ यदेतस्य मुखं श्वेतं चतुजिवं हि लक्ष्यते । एतत्कृतयुगं नाम तस्य कालस्य वै मुखम् । असौ देवः सुरश्रेष्ठो ब्रह्म वैवस्वतो मुखः १४ से फिर दूसरे भी उत्पन्न हुए । देवों के बीच जो चौदह महात्मा देवता हैं, उनके भी मध्य जो सबको पाने वाले, सभी जगह जाने वाले और सव योगो को जानने वाले है, वे ही लोकोपर अनुग्रह करने के लिये ओंकार के आदि, मध्य और अन्त कहे जाते है |३-४। सप्तष गण, इन्द्र और पितरों के साथ देव गण आदि अक्षर स्वरूप देव-देव महादेव से उत्पन्न हुए है । इस लोक और परलोक में कल्याण के लिये ओंकार परम पद कहा गया है । मैंने पहले ही कहा है कि, काल का नाम युग भी है 1५-६ कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग के साथ युग आदि चक्रको तरह नीचे-ऊपर घूमते रहते है । देव गण तव काल के वशीभूत होकर व्पन्न हो गये और स्वयं उसकी इयत्ता (सीमा) परिमाण को निर्धारित करने मे । असमर्थ हो गये ॥७-८ आदि मन्वन्तर मे वे ऋषि, देवता ओर इन्द्र आदि मौनावलम्बन कर हजारो वर्ष पर्यन्त चंचल मन को एकाग्र करके कठिन तपस्या करने लगे। तब काल से डरे हुए वे देवदि महादेव की शरण में महुंचे ।e१० वे बोले-महेश्वर ! महादेव ! इस चार मुंह और भूत धारण करने वाले देवेश अगाध काल का पार कौन पा सकता है ? महादेव जी ने उस चतुर्मुख काल को देख और कहाड की कोई बात । कहिये आपकी नही है किस अभिलाषा को पूर्ण कर्ह ? ।११-१२आप के सब कार्य हो जायेगें, आप का यह परिश्रम व्यर्थ है । फिर स्वयं काल स्त्र रूप अजेय महादेव जी बोले –काल का जो यह चार जिह्वावाला श्वेत मुख दीख पडता है, वह काल का कृतयुग नामक मुख है और यही मुख देवश्रेष्ठ ब्रह्मा और वैवस्वत भी कहलाता है ।१३-१४। ब्राह्मण ! यह