पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२४०

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त्रिशोऽध्यायः ११८ एवं ब्रुवाणां भगवानचिन्रयः पत्नीं प्रहृष्टः क्षुभितामुवाच । न वेत्सि देवेशि कृशोदराङ्गि हि नाम युक्तं वचनं तंवेदम् ११७ अहं हि जानामि विशालनेत्रे ध्यानेन सर्व हि वदन्ति सन्तः। तवाद्य मोहेन महेन्द्रदेवो लोकत्रयं सर्वथा संप्रमूढम् मामध्वरे शंसितारः स्तुवन्ति रथंतरे(रं) साम गायन्ति गेयम् । मां ब्राह्मणा ब्रह्मसत्रे यजन्ते ममाध्वर्यवः कल्पयन्ते च भागम् ११६ देव्युवाच सुप्राकृतोऽपि भगवान्सर्वस्त्रीजनसंसदि । स्तौति गोपायते वाऽपि स्वमात्मानं न संशयः ॥१२० भगवानुवाच नाऽऽत्मानं स्तौमि देवेशि पश्य त्वमुपगच्छ च । यं द्रक्ष्यामि वरारोहे भागार्थे वरवणिनि ॥१२१ एवमुक्त्वा तु भगवान्पत्नीं प्राणैरपि प्रियाम् । सोऽसृजद्भगवान्क्त्राभूतं क्रोधाग्निसंनिभम् ॥१२३ सहस्रशीर्ष देवं च सहस्र वरणेक्षणम् । सहस्त्रमुद्गरधरं सहस्रशरपाणिनम् १२३ प्राप्त करे ।११६। इस प्रकार बोलने वाली कंपनी दुःखी पत्नी पर प्रसन्न होकर महादेव जी ने कहा ऋशोदराङ्गि ! तुम जो कह रही हो कि, मैं नहीं जानती, यह क्या ठीक कह रही हो ? हम इस बात को जानते है कि साधु पुरुप ध्यान योग से सब बातों को जान जाते हैं । महेन्द्र प्रमुख देवों को कौन कहे तीनों लोक तुम्हारी माया से मोहित हो गया है । देखो, प्रस्तोता यज्ञ में हमारा ही स्तवन कर रहे हैं, रथन्तर साम गान हो रहा है । ब्राह्मण लोग् ब्रह्मयज्ञ में हमारी ही पूजा कर रहे हैं और अध्वर्युगण हमारे लिये भाग कल्पित कर रहे है ।११७-११६॥ देची बोली-स्त्रियों के बीच तो मामूली आदमी भी अधिक प्रशंसा कर दिया करता है और अपनी कमजोरी छिपा लिया करता है । यह पक्की बात है । क्या आप भी वही कर रहे है ? ॥१२०॥ भगवान् बोलेशूठमूठ अपने --देवेशि ! हम प्रशंसा नहीं कर रहे है । वरारोहे ! वरवणिनि ! तुम आकर देखो कि, अपने भाग के लिये हम किसी सृष्टि कर रहे हैं । प्राण से भी प्रिय पत्नी को भगवान् नै ऐसा कह कर अपने मुंह से जाज्वल्यमान अग्नि की तरह एक भूत को उत्पन्न किया, जिसे हजार सिर, चार पैर और हजार आँखें थीं । वह हजारों मुद्गर और हजारों वाणों को हाथों में रखे हुये था,