त्रिंशोऽध्यायः २१७ अप्रमेयमनाधृष्यं सर्वलोकनमस्कृतम् । तस्मिन्देवो गिरिश्रेष्ठं सर्वधातुविभूषिते ॥ ८२ पर्यङ्क इव विभ्राजमुपविष्टो बभूव ह। शैलराजसुता चास्य नित्यं पाश्र्वस्थिताऽभवत् । आदित्याश्च महात्मानो वसवश्चामितौजसः ॥८३ तथैव च महात्मानावश्विनौ भिषजां वरौ। तथा वैश्रवणो राजा गुह्यकैः परिवारितः ॥८४ यक्षाणामश्विरः श्रीमान्कैलासनियः प्रभुः। उपासते महात्मानमुशनाच महामुनिः । सनत्कुमारप्रमुखास्ते चैव परमर्षयः ८५ अङ्गिरःप्रमुखश्चैव तथा देवर्षयोऽपरे । विश्वावसुश्च गन्धर्वस्तथा नारदपर्वतौ ८६ अप्सरोगणसंघाश्व समाजग्मुरनेकशः । ववौ शिवः सुखो वायुर्नानगन्धवहः शुचिः ८७ सर्वर्तुकुसुमोपेताः पुष्पवन्तो द्रुमास्तथा । तथा विद्याधराश्चैव सिद्धिश्चैव तपोधनाः। ॥८८ महादेवं पशुपत पर्युपासन्ति तत्र व । भूतानि च तथाऽन्यानि नानारूपधरान्यथ ॥८६ राक्षसाश्च महारौद्राः पिशाचाश्च महाबलाः । बहुरूपधरा हृष्टा नानाप्रहरणोद्यताः ।० देवस्यानुचरास्तत्र तस्थुर्वैश्वानरोपमाः । नन्दीश्वरश्च भगवान्देवस्यानुमते स्थितः १ प्रगृह्य ज्वलितं शूलं दीप्यमानं स्वतेजस। गङ्गा च सरितां श्रेष्ठा सर्वतीर्थजलोद्भवा ॥ पर्युपासत तं देवरूपिणी द्विजसत्तमाः ॥६२ (= = = =
= पवित्र शिखर पर महादेब जी इस प्रकार बैठे थे, मानो कोई पलग पर बैठा हो ॥८१-८२गिरि हिमालय का वह ष्ठङ्ग सब का पूज्य, अत्यन्त विस्तृत और किसी प्रकार से उल्लंघन के योग्य न था । पार्वती भी उनकी बगल में बंटी हुई थी । उस समय आदित्यगण, अत्यन्त पराक्रभी वसुगण, दोनों भाई वैद्यराज अश्विनी कुमार गुह्यको को साथ लेकर राजा वैश्रवण, सनत्कुमार आदि परगणे, अङ्गिरा आदि देवर्षि. विश्वावसु गन्धर्व, नारद पर्वत कंजूस निवासी यक्षराज महामुनि उशना और अप्सराये बारबार आकर उनकी पूजा उपासना करने लगीं ।८३-८४उस समय कल्याणकारक. सुखद, सुगन्धित शीतल वायु चल रही थी, सब ऋतुओं के फूलों से युक्त होकर विटप सुशोभित हो रहे थे और सिद्ध, विद्याधर तथा तपस्वी आदि महादेव पशुपति की उपासना कर रहे थे । विविध स्वरूप को धारण करने वाले नाना प्रकार के भूत, महाभयङ्कर राक्षस, महाबली पिशाच आदि बहुविध रूपों को धारण करके और नाना प्रकार के अस्त्रो से सज्जित होकर अनि के समान दीप्ति को धारण कर सेवा कार्य करने लगे ।३५-६०३ भगवन् नन्दीश्वर चमकते हुये प्रज्वलित त्रिशूल को लेकर उनके निकट आदेश पालन करने जा वंडे । द्विजगण ! उस समय सब तीथों के फा०-२०