पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२२४

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एकोनत्रिंशोऽध्यायः २०५ विपाशां कौशिकीं चैव शतद्वै सरयू तथा । सीतां सरस्वतीं चैव हदिनीं पावनीं तथा) १४ तासु षोडशधTSऽत्मानं प्रविभज्य पृथक्पृथक्। आत्मानं व्यदधात्तासु धिष्णीष्वथ बभूव सः ॥१५ धिष्ण्यादव्यभिचारिण्यस्तासूत्पन्नास्तु धिष्णयः। धिष्णीषु जज्ञिरे यस्माद्विष्णयस्तेन कीतिता ॥१६ इत्येते वै नदीपुत्रा धिष्णीष्वेव विजज्ञिरे । तेषां विहरणीया ये उपस्थेयाश्च येऽग्नयः ॥ ताञ्शृणुध्वं समासेन कीर्यमनान्यथा तथा १७ ऋतुः प्रवाहणोऽग्नीध्रः पुरस्ताद्धिष्णयोऽपरे। विधीयन्ते यथास्थानं सौत्येऽह्नि सचनक्रमात् ॥१८ अनिर्देश्यान्यवच्यानामग्नीनां शृणुत क्रमम् । सम्राडग्निः कृशानुर्यो द्वितीयोत्तरवेदिकः १६ सम्राडग्निः स्मृता ह्यष्टौ उपतिष्ठन्ति तान्द्विजाः । अधस्तात्पर्षदम्यस्तु द्वितीयः सोऽत्र दृश्यते ॥२० ग्रतबोचे नभो नाम चत्वारि स विभाव्यते । ब्रह्मज्योतिर्वसुर्नाम ब्रह्मस्थाने स उच्यते ॥२१ [+हव्यसूर्याद्यसंसृष्टः शामित्रे स विभाव्यते । विश्वस्याय समुद्रोऽग्निर्महास्थाने स उच्यते ॥२२ (४ऋतुधामा च सुज्योतिरौदुम्बर्या स कीर्यते । ब्रह्मज्योतिर्वसुर्नाम ब्रह्मस्थाने स उच्यते) २३ अजैकपादुपस्थेयः स वै शालामुखीयकः । अनुद्देश्योऽप्यहिउँघ्नः सोऽग्निगृहपतिः स्मृतः २४ सोलह भागो में विभक्त कर उन धीढिणयों ( आधारभूत नदियों ) में आसक्त हुये । अग्नि स्वयं विष्ण्य हैं। और साध्वी नदियों से उन्हें अनेक पुत्र हुये, जो विणी से उत्पद्य होने के कारण विष्ण्य कहलाये ।१३१४॥ ये नदीपुत्र जो धिष्णयो में उत्पन्न हुये है और अग्नि है, उनके विहार योग्य स्थानों को सुनिये, हम संक्षेप में कहते है ।१५-१६। ऋतु प्रवाहण. अग्नीध्र और अपरापर औष्णिगण यज्ञ दिवस में सवनक्रम से यथास्थान सम्मुख भाग में स्थापित होते हैं। जो अग्नि अनिर्देश्य और अवाच्य है अर्थात् जिनके स्थान आदि का निर्देश नहीं हुआ है, उनके क्रम को सुनिये ।१७१८३। कृशानु नामक जो सम्राट् अग्नि हैं, वे यज्ञ के उत्तर द्वितीय वेदी पर निवास करते है। सम्राट् अग्नि आठ प्रकार के है, जिनकी ब्राह्मण लोग पूजा किया करते है। पूर्वोक्त आठों अग्नियों में पर्षत् अग्नि द्वितीय है । ये वेदी के अधोभाग में रहते हैं । गतद्वच (?) में नभ ‘नामके अग्नि चार नामों से स्थित हैं । ब्रह्मज्योति वसु नामक अग्नि ब्रह्मस्थान में रहते हैं ।१६-२१। हव्य और सूर्यादि से जिनका कोई संसर्गे नहीं है, वह अग्नि शामित्र कर्म में स्थापित होते है। समुद्राग्नि का नाम विश्वस्याय है । यह ब्रह्मस्थान में निहित होते हैं ।२२। ऋतुधामा सुज्योति अग्नि औदुम्बरी में स्थापित होते हैं। ब्रह्मज्योति वसु ब्रह्म स्थान में रहते है ।२३। अजैकपाद अग्नि पूजनीय हैं और यज्ञणालामुख में स्थापित होने नामक अनि है अनुद्देश्य है और गृहपति कहलाते हैं । शंस्य के सभी पुत्र ब्राह्मणों द्वारा पूजनीय कहे गये । अहिबून अग्नि + धनुश्चिह्नान्तर्गग्रन्थो ड. पुस्तके नास्ति । ४धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति ।