पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२१६

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सप्तविंशोऽध्यायः १८७ १४४ तत्राऽऽविष्टं सर्वमिदं तनुभिर्नामभिः सह । एकाकी यश्चरत्येष सूर्योऽसौ चन्द्र उच्यते ३६ सूर्यस्य यत्प्रकाशेन वीक्ष्यन्ते चक्षुषा प्रजाः । शुक्लाहमा संस्थितो रुद्रः पिबत्यम्भो गभस्तिभिः ।४० अद्यते पीयते चैवाप्यन्नपात्मकानि या । तनुरामभदा सा वै देहेष्वेवोपचीयते ४१ यय धत्ते प्रजाः सर्वाः स्थिरीभूतेन चेतसा । पथवी सा तनुस्तस्य शाह् धारयति प्रजाः ॥४२ यावत्स्थिता शरीरेषु भूतानां प्राणवृत्तिभिः । वाय्वात्मिका तु ऐशानी स प्राणाः प्राणिना सह । पीताशितानि पचति भूतानां जठरेषु या। ततः पाशुपती तस्य पचिका शक्तिरुच्यते यानीह सुषिराणि स्युर्देहेष्वन्तर्गतानि वै। वायोः संचरणार्थाय सा भीमा चोच्यते तनु ॥४५ वैतानदीक्षितानां तु या स्थितिर्बह्मवादिनाम् । तनुरुग्रात्मिका स तु तेनोग्रो दीक्षितः स्मृतः ॥४६ यत्तु संकल्पकं तस्य प्रजास्विह समं स्थितम् । स तनुर्मानसी तस्य चन्द्रमाः प्राणिषु स्थितः ॥४७ नवो नवो भवति हि जायमानः पुनः पुनः । नीयते यो यथाकामं विबुधैः पितृभिः सह । महदेवोऽमृतात्माऽसौ ह्यम्मयश्चन्द्रमः स्मृतः तस्य वा प्रथमा नाम्ना तनू रौद्री प्रकीतिता । पत्नी सुवर्चला तस्य पुत्रस्तस्याः शनैश्चरः ४ भवस्य य द्वितीया तु तनुरापः स्मृत तु वै । तस्योषाऽत्र स्मृता पत्नी पुत्राप्युशना स्मृतः ॥५० ४८ में एकत्र निवास करते हैं, उसे अमावास्य कहते हैं । इस अमावास्p तिथि में योग युक्त होकर रहना चाहिए क्षयोंकि ब्रह्म में नाम रूप के साथ सारा जगत् प्रविष्ट है । वही अकेले सूर्य और चन्द्र कहलाते हैं। ३८-३€। प्रजागण सूर्य के प्रकाश में चक्षु द्वारा देखते हैं और रूद्र देव शुक्लात्म रूप से सूर्य के मध्य में स्थित होकर किरण द्वारा जल का आकर्षण करते हैं। जो अन्नजल आदि भोजन द्वारा शरीर में जाते हैं वे उनका आत्मसम्भव शरीर होने के कारण प्रत्येक जीव शरीर मे जाकर उसको बढ़ाते है । भगवन् स्थिर चित्त से जिस शरीर द्वारा प्रजाओं धारण करते हैं, वही उनकी शार्वी पार्थिव मूर्ति है। जो शरीर प्रण-वृति के को साथ भूतों के शरीर में निवास करसा है, वही उनकी वायु रूप ऐशानी मूर्ति है और वही प्राणियों का प्राण है। ४०-४३। जो शरीर जीवों के जठर मे खये पिये हुये को पचाता . वही जठरागिन उनकी शक्तिशालिनी पशुपति सूत है। वायु के संचरण के लिये देह के भीतर जितने रन्ध्र हैं, वे ही उन की भीमा मूfत है। ४४४५। यज्ञ दीक्षित ब्रह्मवादियों की जो स्थित ( वृत्ति ) है, वही उनकी उग्रा:िभका मूर्ति है एवं उनक वह उग्र शरीर यजमान है । देव-देव का जो संकल्प सभी प्रजाओं में समभात्र से वर्तमान है. वही संकल्प उनका होनेवाला और नवीन है णिस्थित सोमरूपी मानस शरीर है । इनका यह शरीर बर वार निम । एवं देवभवितृगण के साथ इच्छानुकूल ले जाया जाता है। इलिये भगवान् महदेव ही अमृतारमा जलमय चन्द्रमा कहे जाते हैं ।४६-४०। उनका जो पहला शरीर रोद्र नाम से कहा गया है। उसकी पत्नी सुवर्चला है जिसका पुत्र शनैश्चर है। दूसरा भव शरीर जो जलारमक है, उसकी पहली ऊषा है और पुत्र उशन (४६-५०॥