पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१५८

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द्वाविशोऽध्यायः १३६ रक्ताम्बरधराः सर्वे रक्तमाल्यानुलेपनाः। रक्तभस्मानुलिप्ताङ्गा रक्तास्या रक्तलोचनाः ॥३१ ततो वर्षसहस्रान्ते ब्रह्मण्या व्यवसायिनः । मृणन्तश्च महात्मानो ब्रह्म तद्वामदैविकम् ३२ अनुग्रहार्थं लोकानां शिष्याणां हितकाम्यया । धर्मोपदेशमखिलं कृत्वा ते ब्राह्मणाः स्वयम् ॥३३ पुनरेव महादेवं प्रविष्टा रुद्रसव्ययम् । येऽपि चान्ये द्विजश्रेष्ठा युञ्जाना वाममोक्षरम् ॥३४ प्रपद्यन्ति महादेवं तद्भक्तास्तत्परायणाः । ते सर्वे पापनिर्मुक्ता विमला ब्रह्मवर्चसः । रुद्रलोकं गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम् ३५ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते कल्पसंख्यानिरूपणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ।।२२।। और रक्त लेप से युक्त थे, सब के अंगों में रक्त विभूति लग हुई थी, उनके मुख और लोचन भी रक्तवर्ण के ही थे ।३१। इसके अनन्तर उन ब्रह्मज्ञानी, अध्यवसायी महात्माओं ने उस वामदेवसम्बन्धी ज्ञान का अभ्यास किया और उनकी स्तुति की । लोक हित और शिष्यों की हितदृष्टि से अखिल घर्मा का उपदेश कर पुनः स्वयं उसी अव्यय रुद्र महादेव में विलीन हो गये ।३२-३३६। द्विजश्रेष्ठ ! जो अन्य व्यक्ति भी वामदेव भहादेव का ध्यान करते और अनन्य भाव से उसकी शरण में जाते है वे भी शुद्ध, बुद्ध और निष्पाप हो र उस रुद्रलोक यो प्राप्त करते है जहाँ से पुनः लौटना दुर्ब भ और असम्भव है ।३४३५॥ श्रीवासुमहापुराण का कल्पसंख्यानिरूपण नामक वाईसवाँ अव्याय समाप्त ।।२२।। =ि }