पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१५३

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u १३४ भुवं दिवं च विष्टभ्य दीप्यते स महावपुः । ततो वर्षसहस्रन्ते संपूर्ण ज्योतिमण्डले ६४ आविष्टया सहोत्पन्नमपश्यत्सूर्यमण्डलम् । यस्माददृश्यो भूतानां ब्रह्मणा परमेष्ठिना १६५ दृष्टस्तु भगवान्देवः सूर्यः संपूर्णमण्डलः। सर्वे योगाश्च मन्त्राश्च मण्डलेन सहोत्थिताः ६६ यस्मात्कल्पो ह्ययं दृष्टस्तस्मात्तं दर्शसुच्यते(?) । यस्मान्मनसि संपूर्णा ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ॥६७ पुरा वै भगवान्सोमः पौर्णमासी ततः स्मृता । तस्मात्तु पर्वदशं वै पौर्णमासं च योगिभिः ६८ उभयोः पक्षयोर्योज्यमात्मनो हितकाम्यया । दर्श च पौर्णमासं च ये यजन्ति द्विजातयः ६६ न तेषां पुनरावृत्तिन्त्रंह्मलोकात्कदाचन । योऽऽनाहिताग्निः प्रयतो बीराध्वानं गतोऽपि वा ॥७० समाधाय सनस्तीनं मन्त्रमुच्चारयेच्छनैः । त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं श७ मारुतं पृक्ष ईशिषे ॥ त्वं षाशगस्धर्वशिषं पूषा विधत्तयासिना । इत्येव मन्त्र मनसा सस्यगुच्चारयेद्द्विजः ॥७२ आर्त प्रविशते यस्तु रुद्रलोकं स गच्छति । सोमश्चाग्निस्तु भगवान्कालो रुद्र इति श्रुतिः ॥७३ तस्माद्यः प्रविशेद्भर्न स रुद्रान्न निवर्तते । अष्टविशतिमः कल्पो बृहदित्यभिसंज्ञितः ७४ ब्रह्मणः पुत्रकामस्य स्रष्टुकास्य वै प्रजाः । ध्यायमानस्य मनसा बृहत्साम रथंतरम् ७५ यस्मात्तत्र समुत्पन्नो वृहतः सर्वतोमुखः । तस्मात्तु वृहतः कल्पो विज्ञेयस्तत्त्वचिन्तकैः ७ अग्नि रूप से भूलोक और द्युलोक में व्याप्त होकर प्रदीप्त हो उठा ।६२-६३३ हजार वर्ष बीत जाने पर वह ज्योतिमण्डल पूर्ण हुआ अर्थात एकीभूत हुआ और सूर्यमण्डल के रूप में परिणत हो गया । ब्रह्मा ने पूर्व अदृश्य उस सूर्यमण्डल को देखा और उस मण्डल से समस्त योग और मन्त्रसमूह हुए इसलिये उस उत्पन्न ; कल्प का नाम दर्श पड़ा। प्राचीन काल में उस समय भगवान् सोम ब्रह्म के मन में पूर्ण रूप से प्रस्ट हो ग थे, इससे पौर्णमासी भी कहलाई 1६४-६८। इसलिये योगियों को च॥हिये कि उभय पक्ष के पर्व (५ में यानी दर्श-पौर्णमासी में अपनी भलाई के लिये योगानुष्ठान करे। दशं (अमावास्या) और पूणिमा मे जो द्विजाति यजन करते हैं, उनका ब्रह्मलोक से फिर आवागमन नही रहता है ।६६३ । जो अनाहितमग्नि द्विज शुद्ध होकर वीर पथ में प्रवत्त होते हैं और चंचल मन का समाधान कर इस मन्त्र का शनैः शनैः पाठ करते हैं एवं मन ही मन उच्चारण करते हैं, अग्नि में प्रवेश कर जाते है, वे रुद्रलोक जाते है । अग्नि ही काल, रुद्र और सोम हैं-ऐसी श्रुति है (७०-७३। इस कारण जो अग्नि में प्रवेश करता है वह रुद्रलोक से नही लौटता है । मन्त्र-"स्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शबू मातं पृक्ष ईणिपे,' त्रं पाश गन्धर्व शिप पूषा विधत्तया सिना।" अठाईसव कल्प वृहत् कहलाता है । सृष्टि की कामना करने वाले प्रजाभिलाषी ध्यानपरायण ब्रह्मा के अन्तःकरण ने बृहत् साम और रथन्तर प्रादुर्भूत हुए। जिस कारण सर्वतोमुख वृहत् समुत्पन्न हु इसीलिये उस कप को तस्वचिन्तक गण वृहतु' कहते है के का परिमाण अट्टाहा ७४-७६। सूर्यमण्डल रथन्तर