पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१२२

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श्रयोदशोऽध्यायः १०३ त्रैलोक्ये सर्वभूतेषु जीवस्यानियतः स्मृतः। अणिमा च यथाव्यक्तं सर्वं तत्र प्रतिष्ठितम् १० त्रैलोक्ये सर्वभूतानां दुष्प्राप्यं समुदाहृतम् । तच्चापि भवति प्राप्यं प्रथमं योगिनां बलात् ॥११ लम्बनं प्लवनं योगे रूपमस्य सदा भवेत् । शीघ्रगं सर्वभूतेषु द्वितीयं तत्पदं स्मृतम् १२ त्रैलोक्ये सर्वभूतानां प्राप्तिः प्राकस्यमेव च। महिम चापि यो यस्मिस्तृतीयो योग उच्यते ।१३ त्रैलोक्ये सर्वभूतेषु त्रैलोक्यमगसं स्मृतम् । प्रकामान्विषयान्भुङ्क्ते न च प्रतिहतः क्वचित् ॥१४ त्रैलोक्ये सर्वभूतानां सुखदुःखे प्रवर्तते । ईशो भवति सर्वत्र प्रविभागेन योगवित् १५ वश्यानि चैव भूतानि त्रैलोक्ये सचराचरे। भवन्ति सर्वकार्येषु इच्छतो न भवन्ति च ॥१६ यत्र कामावसायित्वं त्रैलोक्ये सचराचरे। इच्छया चेन्द्रियाणि स्युर्भवन्ति न भवन्ति च ॥१७ शब्दः स्पश रसो गन्धो रूपं चैव मनस्तथा। प्रवर्ततेऽस्य चेच्छातो न भवन्ति तथेच्छया ॥१८ न जायते न म्रियते भिद्यते न च च्छिद्यते । न दह्यते न मुञ्चत हीयते न च लिप्यते १६ न क्षीयते न क्षरति न खिद्यति कदाचन। क्रियते चैव सर्वत्र तथा विक्रियते न च २० स्वयं प्रभु ब्रह्म ने कहा है ।२ -६। त्रैलोक्य में जितने जीव जन्तु हैं, वे सभी उस योगी के वशवर्ती हो जाते है । जिसने अणिमा ऐश्वर्य को प्राप्त किया है । तीनों लोकों में प्राणियों द्वारा जो दुष्प्राप्य कहा गया है, उसे भी योगी अपने प्रथम (अणिमा) योगबल से प्राप्त कर लेते है ।१०-११। द्वितीय ऐश्वर्यं लघिमा के द्वारा योगी सब जीवों के बीच शीघ्रता से चले जाते है, वे आकाश में उड़ सकते और पानी में तैर सकते हैं ।१२। तृतीय ऐश्वर्यं प्राप्ति द्वारा तीनों लोकों के पदार्थों को योगी पा जाते हैं । प्राकाम्य के फलस्वरूप इच्छानुरूप विषय भोग कर सकते हैं और कहीं भी उनके लिए रोबटोक नही हो सकती ।१३। महिमा द्वारा एक स्थान में रहकर भी तीनों लोकों की सब वस्तुओं से संयुक्त हो सकते है ।१४। ईशित्व के प्रभाव से योगी त्रैलोक्यगत सम्पूर्ण भूतों के सुख-दुःख विधान में समर्थ होते हैं ।१५। वशित्व के द्वारा सभी चराचर योगी के वश हो जाते है; लेकिन यह उनकी इच्छा के अधीन है ।१६कामावसायिता के प्रभाव से योगी की इच्छा के अनुसार ही सभी कार्य सिद्ध होते हैं और प्राणी भी' वशीभूत हो जाते है परन्तु वह भी योगी की इच्छा के अधीन ही है। ।९७। शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और मन आदि योगी की इच्छा के अनुसार प्रतत होते हैं और इच्छा न होने पर वे तिल भर भी इधर उधर नही होते ।१८। ऐसे योगी को जन्म, मृत्यु, छेद, , दाहमोह, संयोग, क्षय, क्षरण, खेद आदि कुछ नहीं होते। वे सभी अवस्था में अपनी

  • न दृश्यतेऽयं श्लोकः ख. घ. पुस्तकयोः ।