पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११५४

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द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः धनस्यैतस्य षष्ठांशं तुभ्यं वै दत्तवानहम् । स्वनामानि यथान्यायं सम्यगाख्यातवाहम् : गत्वा गयां गयाशीर्षं प्रेतराजाय पिण्डकस् | समदाद्वन्धुभिः सार्ध स्वपितृभ्यस्ततो ददौ प्रेतः प्रेतत्व निर्मक्तो वणिवस्वगृहमागतः । एवं गयस्य शंसोश्च क्षेत्रं विष्णो रवेस्तथा उपोषितोऽथ गायत्रीतीर्थे महानदीस्थिते | गायत्र्याः पुरतः स्नात्वा प्रातः संध्यामुपासयेत् ॥ श्राद्धं सपिण्डकं कृत्वा नयेद्द्ब्रह्मण्यतां कुलम् ॥२१ तीर्थे समुदिते स्नात्वा सावित्र्याः पुरतो नरः । संध्यामुपास्य मध्याह्न नयेत्कुलशतं दिवम् || पिण्डदानं ततः कुर्यात्पितॄणां मुक्तिकाम्यया ॥२२ प्राचीसरस्वतीतीर्थे स्नात्वा चापि यथाविधि | संध्यासुपास्य सायात विष्णुलोकं नयेत्पितॄन् ॥ बहुजम्मकृतात्संध्यालोपान्मुक्तस्त्रिसंध्यकृत् विशालायां लेलिहाने तीर्थे च भरताश्रमे । पादाङ्किते सुण्डपृष्ठे गदाधरसमीपतः ११३३ ॥१८ ॥१६ ।।२० ॥२३ ॥२४ अपने वन्धुवर्गों के साथ गया की यात्रा में व्यय करो | सारी संपत्ति का छठा अंश मैं तुम्हें पारिश्रमिक के रूप में दे रहा हूं । अपने नाम गोत्रादि भो यथाक्रम तुम्हें वतला रहा हूँ । प्रेत के अनुरोध पर वणिक को और गया शिर में जाकर प्रेतराज के लिए पिण्ड प्रदान किया, और उसके बाद अपने पितरों का भी पिण्डदान किया । प्रेत प्रेत योनि से मुक्त हो गया और पिण्डदान विधिवत् सम्पन्न करके वणिक अपने घर गाया । गय, शम्भु, विष्णु एवं रवि के क्षेत्रों का माहात्म्य इस प्रकार का है |१७-२०१ महानदी तट पर अवस्थित गायत्री तीथं में उपवास कर गायत्री के सामने स्नान कर प्रातः कालीन सन्ध्या का अनुष्ठान करना चाहिये । फिर सविण्ड श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिये । जो व्यक्ति ऐसा करता है वह अपने कुल को ब्रह्म पद की प्राप्ति कराता है । तदुपरान्त समुदित तीर्थ में गायत्री के सम्मुख स्नान करने वाला मनुष्य मध्याह्न की संध्या करके अपने सौ कुलों को स्वर्ग प्राप्त कराता है । मध्याह्न सन्ध्या के बाद पितरों की मुक्ति की कामना से वहां पर भी पितरों के लिये पिण्ड प्रदान करना चाहिये |२१-२२। फिर प्राचीसरस्वती नामक तीर्थ में विधि पूर्वक स्नान करा सायकालीन सन्ध्या करने वाला अपने पितरों को विष्णु लोक प्राप्त कराता है । अनेक जन्म में सन्ध्या न करने के कारण संचित पापों से उक्त तोनों सन्ध्याओं का करने वाला मुक्त हो जाता है । तदनन्तर मुण्ड पृष्ठ पर्वत पर गदाधर के समीप में उनके चरणों से चिह्नित विशालक्षेत्र में स्थित लेलिहान नामक पवित्र तीर्थ है, जहाँ भरत का आश्रम था, यही पर आकाश गङ्गा का प्रवाह → इतः परमेकः श्लोकोऽषिकः ख. पुस्तके -