पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११४५

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११२४ वायुपुराणम् आनं ब्रह्मसरोद्भूतं ब्रह्मदेवमयं तरुम् | विष्णुरूपं प्रसिञ्चामि पितॄणां मुक्तिहेतवे एको मुनिः कुम्भकुशाग्रहस्त आम्रस्य मूले सलिलं ददानः ॥ आत्रश्च सिक्तः पितरश्च तृप्ता एका किया दूधर्थकरी प्रसिद्धा x ततो यमबलं दद्यान्मन्त्रेणानेन संयतः | यमराजधर्नराजी निश्चलार्थ व्यवस्थितौ ताभ्यां बॉल प्रयच्छामि पितॄणां मुक्तिहेतवे ततः श्वानबलं दद्यान्मन्त्रेणानेन नारद । द्वौ श्वानौ श्यामशवली वैवस्वतकुलोद्भवो ताभ्यां बल प्रयच्छामि रक्षेतां पथि सर्वदा ततः काकबलि दद्यान्मन्त्रेणानेन नारद । ऐन्द्रवारुणवायव्ययाम्या वै नैर्ऋतास्तथा ॥ वायसाः प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं समर्पितम् फल्गुतीर्थे चतुर्थेऽह्नि स्नानादिकमथाऽऽचरेत् । गयाशिरस्यथ श्राद्धं पादे कुर्यात्सपिण्डकम् ॥ साक्षाद्गयाशिरस्तत्र फल्गुतीर्थाधितं कृतम् ॥३७ ॥३८ ॥३६ 1180 ॥४१ ॥४२ विष्णु के स्वरूप हैं, पितरों की मुक्ति की कामना से में इनका सिञ्चन कर रहा हूँ । अपने हाथों में घड़ा और कुश लेकर एक मुनि आम्र के मूल में जल देते हुये आम्र को सींचते हैं, और अपने पितरगणों को भी तृप्ति करते है, उनकी एक ही क्रिया दो प्रयोजनों की सिद्धि करने में प्रसिद्धि हुई । तदनन्तर इस मन्त्र से स्वस्थ चित्त होकर यमराज को बलि प्रदान करना चाहिये । यमराज और धर्मराज- ये दोनों गयासुर को निश्चल करने के लिये यहां विशेष रूप से स्थित हैं। अपने पितरो की मुक्ति की कामना से में उन दोनों को बलि प्रदान कर रहा हूँ |३६-३६१ नारदजी ! तदनन्तर श्वानों के लिये बलि प्रदान करना चाहिये, वैवस्वत के कुल में उत्पन्न होनेवाले जो दोनों श्यामल और चितकबरे श्वान हैं, उन्हें, में बलि दे रहा हूँ, वे मार्ग में सर्वदा हमारी रक्षा करें |४०॥ नारद जो ! तदनन्तर काकों के लिये वलि प्रदान करना चाहिये । पूर्व, पश्चिम, वायव्य, दक्षिण, नैऋत कोण एवं दिशाओं में रहनेवाले वायस गण ! मैंने आप लोगों के लिये पृथ्वी पर इस पिण्ड को समर्पित किया है, इसे ग्रहण कोजिये । तदनन्तर चौथे दिन फल्गुतीर्थ में स्नानादि करना चाहिये । फिर गयाशिर पर स्थित विष्णु पद पर सपिण्ड श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिये । वही पर गयासुर का साक्षात् शिरोभाग है, यह फल्गुतीथं उसी के शिरोभाग पर अवस्थित है।४१-४२॥ नाग, जनार्दन ब्रह्मयूप और उत्तर X इत उत्तरमेतदर्धं विद्यते ख. पुस्तके तद्यथा- - यूपं प्रदक्षिणीकृत्य वाजपेयफलं लभेत् ॥