पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११४३

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११२२ वायुपुराणम् नत्वा गदाधरं मन्त्रेणानेन पूजयेत् । ओं नमो वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च ॥ प्रद्युम्नायानिरुद्धाय श्रीधराय च विष्णवे ॥२१ पञ्चतीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन् । अमृतैः पञ्चभिः स्नानं पुष्पवस्त्राद्यलंकृतम् ॥ न कुर्याद्यो गदापाणेस्तस्य श्राद्धं निरर्थकम् नागकूटाद्गृध्रकूटाछूपादुत्तरमानसात् / । एतद्गयाशिरः प्रोक्तं धल्गुतीर्थं तदुच्यते प्रथमेऽह्नि विधिः प्रोक्तो द्वितीये दिवसे व्रजेत् । धर्मारण्यं तन्त्र धर्मो परमाद्यज्ञमकारयत् ॥ गमनाद्ब्रह्मलोकाप्तिर्भवत्येव हि नारद ॥२४ ॥२५ मतङ्गवाप्यां यः स्नात्वा तर्पणं श्राद्धमाचरेत् । गत्वा नत्वा मतङ्गेशमिमं मन्त्रमुदीरयेत् प्रमाणं देवताः सन्तु लोकपालाश्च साक्षिणः । मयाऽऽगत्य मतङ्गेऽस्मिन्पितॄणां निष्कृतिः कृता ॥२६

  • पूर्वं हि ब्रह्मतीर्थे च कूपे श्राद्धादि कारयेत् । तत्कूपयूपयोमंध्ये सर्वास्तारयते पितॄन् ॥

धर्मं धर्मेश्वरं नत्वा महाबोधितरुं नमेतू ॥२२ ॥२३ √ एतच्छ्लोकपरतः क. पुस्तक टिप्पण्यामधिकःश्लोको मनुत्तमम् । अत्र श्राद्धादिना सर्वे पितरो मोक्षमाप्नुयुः । इति । ॥२७ पूजन करना चाहिये । तदन्तर प्रणव ओंकार का उच्चारण करके यह कहे कि श्री भगवान् वासुदेव, सङ्घर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, श्रीधर विष्णु प्रभृति नामों वाले को हमारा बारम्बार नमस्कार है' ।२०-२१॥ पांचों तोधों में स्नान करनेवाला व्यक्ति अपने पितरो को ब्रह्मलोक पहुँचाता है। जो व्यक्ति पञ्चामृत द्वारा स्नान करा कर सुन्दर पुष्प वस्त्रादि से अलंकृत करके भगवान् गदाधर की पूजा नही करता उसको सारी श्राद्ध किया निरर्थक है | नागकूट से गृध्रकूट, गृध्रकूट से यूप एवं ग्रूप से उत्तरमानस-येहो गयासुर के शिरोभाग कहे जाते हैं, इन्ही को फल्गुतीर्थ कहते है। प्रथम दिन में किये जाने वाले विधानों को बतला चुका । तदनन्तर दूसरे दिन धर्मारण्य की यात्रा करनी चाहिये । इसी धर्मारण्य में भगवान् ब्रह्मा ने उक्त यज्ञ का अनुष्ठान किया था । नारद जी ! इस पुनीत धर्मारण्य में गमन मात्र से मुक्ति की प्राप्ति होती है |२२-२३ | फिर मतङ्ग वापी में स्नान कर तर्पण एवं श्राद्ध करना चाहिये, वहाँ जाकर मतगेश को नमस्कार कर इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये । हे लोकपाल देवगण ! आप हमारे इस कार्य मे साक्षी रहें कि में इस मतङ्ग तीर्थ में आकर अपने पितरों का निस्तार कर चुका ।' प्रथमतः ब्रह्मतीर्थ में जाकर कूप पर श्राद्धादि करना चाहिये | उस कूप एवं विद्यते स यथा - मुण्डपृष्ठनगाधस्तात्फल्गुतीर्थ-

  • इदमधं न विद्यते ख. पुस्तके |