पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११११

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५०६० वायुपुराणम् यावत्यो हि सरिच्छ्रेष्ठा गङ्गाद्याश्च ह्रदाः शुभाः । समुद्राद्याः सरोमुख्या मानसाद्याः सुरेश्वराः ॥ नृणा श्राद्धं विदधतो मुक्तये निवसन्तु मे ।।५२ ॥५३ ॥५४ + शरीरेण सामायान्तु क्वचिन्नो यान्तु देवताः । एको विष्णुस्त्रिधामूतिर्थावत्संकीर्त्यते बुधैः तावच्छलायां सर्वाणि तीर्थानि सह दैवतैः । सदा तिष्ठन्तु मुनयो गन्धर्वाणां गणाश्च ये यावत्तिष्ठति ब्रह्माण्डं तावत्तिष्ठतु वै शिला | मम देहेऽश्मरूपे च ये जपन्ति तपत्ति च x जुहोत्यग्नौ च तेषां वै तदक्षय्योपतिष्ठताम् (?) अक्षयं तु भवेच्छ्राद्धं जपहोमतपांसि च ॥ ॥५५ शिलापर्वतरूपेण मयि तिष्ठत सर्वदा पतिव्रतावचः श्रुत्वा देवाः प्रोचुः पतिव्रताम् | त्वया यत्प्रार्थितं सर्वं तद्भविष्यत्यसंशयम् गयासुरस्य शिरसि भविष्यसि यदा स्थिरा । तदा पादादिरूपेण स्थास्यामस्त्वयि सुस्थिराः || वरं शिलायै दत्त्वैवं तत्रैवान्तर्दधुः सुराः इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते गयामाहात्म्यं नाम सप्ताधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०७॥ + इदमधं ख. पुस्तके नास्ति । ॥५६ ॥५७ जितनी श्रेष्ठ नदियां, मनोहर सरोवर, समुद्रादि पवित्र मानसादि तीर्थ, इन्द्रादि देवगण हों वे श्राद्धकर्ता को मुक्ति प्रदान करने के लिये मेरे शरीर पर निवास करें | ५२॥ देवगण, आप लोग अपने मूर्त रूप से यहां बने रहें, कही अन्यत्र न जायं । पण्डित लोग तीन स्वरूपों में व्यक्त होनेवाले एक मात्र भगवान् विष्णु का जब तक संकीर्तन करें तब तक शिला पर सभी तीर्थ एवं देवगण निवास करते रहें। मुनियों एवं गन्धर्वो का भी सर्वदा उस पर निवास रहे । जब तक ब्रह्माण्ड का अस्तित्व रहे तब तक इस शिला का अस्तित्व रहे । पत्थर रूपी मेरे शरीर पर स्थित होकर जो लोग जप, तपस्या एवं हवनादि करें, वे अक्षय फल प्राप्त करें । इस पर किया गया श्राद्ध जप, हवन एवं तप - सभी अक्षय फलदायी हों । देवगण ! आप लोग शिलाओं एवं पर्वत- शिखरों का स्वरूप धारण कर मेरे शरीर पर सर्वदा स्थित रहे ।५३-५६ | पतिपरायण धर्मव्रता के वचनों को सुनकर देवताओं ने कहा, धर्मव्रते ! तुम्हारी अभिलाषाएँ पूर्ण होंगी - इसमें सन्देह मत करना | गयासुर के शिर पर जब तुम स्थिर होगी तब चरणादि स्वरूप से हम लोग तुम्हारे शरीर पर स्थिर होंगे इस प्रकार धर्मव्रता को वरदान देने के उपरान्त देवगण अन्तर्धान हो गये ।५७-५८॥ श्री वायुमहापुराण में 'गयामाहात्म्य' नामक एक सो सातवाँ अध्याय समाप्त ॥१०७|| X इदमधं नास्ति ख. पुस्तके | ॥५८