पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१११०

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१०८ सप्ताधिकशततमोऽध्यायः ॥४२ ॥४३ भर्तुः शापान्मोचयितुं न शक्ताश्च यदाऽमराः । मह्यं वरं प्रयच्छध्वं एवंविधमनुत्तमम् शिलाऽहं हि भविष्यामि ब्रह्माण्डे पावनी शुभा | नदीनदसरस्तीर्थदेवादिभ्योऽतिपावनी ऋष्यादिभ्यो मुनिभ्यश्च मुख्यदेवेभ्य एव च । त्रैलोक्ये यानि लिङ्गानि व्यक्ताव्यक्तात्मकान्यपि ॥ तानि निष्ठन्तु मद्देहे तीर्थरूपेण सत्रदा ॥४४ ॥४५ ॥४६ ॥४७ तीर्थान्यपि च सर्वाणि नक्षत्रप्रमुखास्तथा । तिष्ठन्तु देवाः सकला देव्यश्च मुनयस्तथा शिलास्थितेषु तीर्थेषु स्नात्वा कृत्वाऽथ तर्पणम् | श्राद्धं सपिण्डकं येषां ब्रह्मलोकं प्रयान्तु ते गदाधरो दृश्यतीर्थं सर्वतीर्थोत्तमोत्तमम् । मुक्तिर्भवेत्पितणां च बहूनां श्राद्धतः सदा जरायुजाण्डजा वाऽपि स्वेदजा वाऽपि चोद्भिदः | त्यक्त्वा देहं शिलायां ते यान्तु विष्णुस्वरूपताम् ॥ यथाऽचिते हरौ सर्वे यज्ञाः पूर्णा भवन्ति हि । तथा श्राद्धं तर्पणं च स्नानं चाक्षयमस्त्विह मम देहे सुरेशानां ये जपन्ति श्रुतादिकस् । अचिरेणापि ते सिद्धाः सिद्धिभाजो भवन्तु वै पितॄणां कुलसाहस्रमात्मना सहिते नरः । श्राद्धादिना समुद्धृत्य विष्णुलोकं नये ध्रुवम् ॥४६ ॥५० ॥५१ वरदान तुम मांग सकती हो । देवताओं की बातें सुनकर धर्मव्रता ने कहा, देववृन्द ! यदि आप लोग पति के शाप को निराकृत करने में असमर्थ हैं तो मुझे इस प्रकार का वरदान दीजिए कि मैं निखिल ब्रह्माण्ड में परम पावन शिला रूप में प्रार्दुभूत होऊँ । जितने भी नद, नदी, सरोवर, तीर्थ एवं देवादि है, उन सब से अधिक पवित्रता का मुझमें निवास हो । ३६ ४३ | वही नहीं जितने भी ऋषि मुनि एवं प्रमुख देवगण है, उन सबसे भी अधिक पवित्रता मुझमें हो । समस्त त्रैलोक्य में जितने व्यक्ताव्यक्त लिङ्गादि हैं, वे सब तीर्थ रूप धारण कर हमारे शरीर में निवास करें |४४ | भूमण्डल के समस्त तीर्थ, नक्षत्रप्रमुख समस्त देवगण, देवियाँ एवं मुनिगण — सभी निवास करें। शिला पर स्थित उन तीर्थों में स्नान एवं तर्पण कर जो पिण्डादि समेत श्राद्ध कर्म करें वे ब्रह्मलोक को प्राप्त करें ।४५-४६। उस शिला पर दृश्यतीर्थ गदाघर सभी तीर्थों में श्रेष्ठ हों, वहीं श्राद्धकर्म सम्पन्न करने से अनेक पितरों को मुक्ति प्राप्त हो । जरायुज, अण्डज, स्वेदज एवं उद्भिद्- सभी प्रकार के जीवनिकाय पवित्र शिला पर प्राण त्याग कर विष्णु की स्वरूपता प्राप्त करें । जिस प्रकार भगवान् विष्णु की पूजा कर देने पर सभी प्रकार यज्ञ पूर्ण हो जाते हैं, उसी प्रकार श्राद्ध, तर्पण एवं स्नान करने से यहाँ अक्षय फल की प्राप्ति हो । मेरे शरीर पर देवेशों के मंत्रों का जो जाप करे, वे थोड़े ही समय मे सिद्धि प्राप्त करे ।४७-५०। अपने समेत पितरों एवं सहस्रों कुलों का वह मनुष्य उद्धार करनेवाला हो । उस पवित्र शिला पर श्राद्धादि सम्पन्न कर पितरों को प्रसन्न करनेवाला विष्णु लोक को प्राप्त करे १५१॥ गङ्गा प्रभृति फा०-१३७