पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०७५

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१०५४ वायुपुराणम् वाचो वेदांश्चान्तरिक्षं शरीरं क्षिति पादौ तारका रोमकूपान् । सर्वाणि चाङ्गनि तथैव तानि विद्याश्च अङ्गाणि च यस्य पुच्छम् तं देवदेवं जननं जनाना सर्वेषु लोकेषु प्रतिष्ठितं च । वरं वराणां वरदं महेश्वरं ब्रह्माणमादि प्रयतो नमस्ये इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते सृष्टिवर्णनं नाम त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।।१०३।। चतुरधिकशततमोऽध्यायः व्याससंशयापनोदनम् - शौनकादिऋषय ऊचु सूत सूत महाभाग त्वया भगवता सता | व्यासप्रसादाधिगतशास्त्रसंबोधनेन च ॥७२ ॥७३ ॥१ अन्तरिक्ष जिसका शरीर है, पृथ्वी जिसके चरण हैं, ताराएँ जिसको रोमावलियाँ है, समस्त दिशाएं जिसके समस्त गङ्गोपाङ्ग हैं, सस्त वेदाङ्ग जिसको पूछ हैं, उस परम देव-देव जनकों के भी जनक समस्त लोक समूहों में व्याप्त एवं प्रतिष्ठित, वरदान दायक महेश्वर ब्रह्मा को मे सर्वप्रथम प्रयत होकर नमस्कार करता हूँ ।६७-७३। श्री वायुमहापुराण में सृष्टिवर्णन नामक एक सौ तोनवां अध्याय समाप्त ॥ १०३॥ अध्याय १०४ व्यास की सन्देह - निवृत्ति शौनकादि ऋषियों ने पूछा- महाभाग सूत जी ! आप सचमुच पाप रहित हैं, क्योंकि भगवान् व्यास की कृपा से आप निखिल शास्त्रों के मर्मो को अधिगत कर चुके हैं; आप अठारहो पुराणों + अयमध्यायः कव्यतिरिक्तपुस्तकेषु न विद्यते ।