पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५०

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एकशततमोऽध्यायः १०२६ ॥३३६ ॥३३७ ||३३८ इदं च परमं तत्त्वं समाख्यास्यामि शृण्वताम् | विज्ञातेश्वरसद्भावमव्यक्तं प्रभवं तथा तत्र पूर्वगतास्तेषु कुमारा ब्रह्मणः सुताः । सनकच सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः वोढुश्च कपिलस्तेषामासुरिश्च महायशाः । मुनिः पञ्चशिखश्चैव ये चान्येऽप्येवमादयः ततः फाले व्यतिक्नान्ते कल्पानां पर्यये गते । महाभूतविनाशान्ते प्रलये प्रत्युपस्थिते अनेक रुद्रकोटघस्तु या प्रसन्ना सहेश्वरी | शब्दादीन्विषयान्भोगान्सत्यस्याष्टविधश्रयात् प्रविश्य सर्वभूतानि ज्ञानयुक्तेन तेजसा । वैहायपदमव्यत्रं भूतानामनुकम्पया ॥३३६ ।।३४० ॥३४१ ॥३४२ तत्र यान्ति महात्मानः परमाणुं महेश्वरम् | तरन्ति सुमहावर्ता जन्ममृत्यूदकां नदीम् ततः पश्यन्ति सर्वाणं ( ? ) परं ब्रह्माणमेव च । देव्या वै सहिताः सप्त या देव्यः परिकीर्तिताः ॥ ३४३ तत्तत्सहस्रं सिंहानामादित्यानां तथैव च । वैश्वानरभूतभव्यव्याप्राश्चैवानुगामिनः आवेश्याssत्मनि तान्सर्वान्संख्यायोपद्भवांस्तथा । लोकान्सप्त इमान्सर्वान्महाभूतानि पञ्च च ||३४५ विष्णुना सह संयुक्तः करोति विकरोति च । स रुद्रो यः साममयस्तथैव च यजुर्मयः ॥ ३४४ ॥३४६ बोले, ऋषिवृन्द ! यह परम गुह्य तत्त्व है, बतला रहा हूँ सावधानता पूर्वक सुनिये | उन समस्त सिद्धि प्राप्त करनेवाले शिवपुर निवासियों में जो ब्रह्मा के कुमार पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, बोढु, कपिल आसुरि एवं महायशस्वी मुनिवर पञ्चशिख ऋषि हैं, तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य जो ऋषि- गण है, वे सब के सब आदि कारण भूत अव्यक्त सत्ता की महत्ता को जानकर पूर्व हो परम गति को प्राप्त हो जाते हैं |३३३ ३३८ । तदनन्तर बहुत काल व्यतीत होने के उपरान्त कल्प समाप्ति के अवसर पर, जब कि समस्त महाभूतो का विनाश हो जाता है, और महाप्रलय आ जाता है, अनेक कोटि रुद्रगण सत्य का आश्रय ग्रहण कर, शब्दादि विषयों से विरक्त होकर अपने ज्ञानमय तेजोवल से समस्त जीवधारियों में आत्मभाव से प्रविष्ट होकर सभी भूतों के ऊपर अनुग्रह करने के लिए अविनश्वर अच्युत वैहायस पद को प्राप्त करते हैं | वे सब महात्मा गण परमाणु स्वरूप धारी महेश्वर को प्राप्त होते है और वहाँ पहुँच कर जन्म मृत्यु रूप जल से प्रपूर्ण, भीषण भँवरों से समन्वित भवनदी को पार कर जाते है । वहाँ पर प्राप्त होकर वे सर्वव्यापी परब्रह्म का दर्शन करते हैं । ऊपर जिन सात महादेवियों की चर्चा की गई है उनके साथ ही वे वहाँ अवस्थित होते हैं |३३६-३४३| सिंहों एवं आदित्यों को, जिनकी संख्या एक सहस्र कही जाती है, तथा वैश्वानर भूत, व्याघ्र एवं अनुगामी रुद्रगण — इन सब को अपनी आत्मा में आविष्ट करके इन सातों लोकों को तथा पांचों महाभूतों ( पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु) को भी शंकर अपने में समाविष्ट कर लेते है । इस प्रकार भगवान् विष्णु के साथ वे इस सृष्टि का प्रादुर्भाव एवं