पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०४६

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एकशततमोऽध्यायः राजतेषु महान्तेषु शातकौम्भमयेषु च । संध्याभ्रसंनिकाशेषु कैलासप्रतिमेषु च इष्टैः शब्दादिभिर्भागैर्ये भवस्यानुसारिणः । प्रासादवरमुख्येषु तेषु मोदन्ति सुव्रताः ब्रह्मघोषैरविरताः कथाश्च विविधाः शुभाः । गीतवादित्रघोषाश्च संस्तवाश्च समन्ततः संहताश्चैवमतुला नानाश्रयकृतास्तथा । एवमादीनि वर्तन्ते तेषां प्रासादसूर्धनि सहस्रपादः प्रासादस्तपनीयमयः शुभः । अनौपम्यैर्वरै रत्नैः सर्वतः परिभूषितः स्फटिकैश्चन्द्र संकाशैर्वेदूर्यमणिसंप्रभैः । बालसूर्यमयैश्चापि सौवर्णैश्चाग्निसप्रभः चुक्रुशुर्ऋषयः श्रुत्वा नैमिषेयास्तपस्विनः | आपत्नसंशयाश्चेमं वाक्यमूचुः समोरणम् ऋषय ऊचु: के तु तत्र महात्मानो ये भवस्यानुसारिणः । अनुग्राह्यतमाः सम्यक्प्रमोदन्ते पुरोत्तमे ऋषीणां वचनं श्रुत्वा वायुर्वाक्यमथाब्रवीत् १०२५ ॥३०३ ॥३०४ ॥३०५ ॥३०६ ॥३०७ ॥३०८ ॥३० ॥३१० हैं, असंख्य पताकाएँ उनकी शोभा वृद्धि कर रही है। सभी मनोरथो को वे पूर्ण करने वाले है । सुन्दर वनों एवं उपवनों से उनकी एक निराली छटा है। उनमें से कितने विशाल प्रासाद चाँदी के और कितने स्वच्छ सुवर्ण के है | कितनों की शोभा सायङ्कालीन मेघो के समान लाल वर्ण की और कितनों की कैलास- शिखर के समान श्वेत वर्णं की है | उन सुरम्य प्रसादों में भव के सद्व्रत परायण अनुचर गण अभिमत संगीतादि विविध भोयोपयोगी साधनों से आनन्द का अनुभव करते है। वहाँ चारों ओर ब्रह्मचर्चा का सुरम्य स्वर गुंजरित होता रहता है। विविध कल्याण दायिनी पौराणिक कथाएँ बराबर चलती रहती है, गायन, वादन, स्तोत्रादि सभी मोर चलते रहते है । उक्त विविध प्रकार के स्वरो से एक विचित्र मनोहारिणो दशा वहाँ की हो जाती है, उसकी तुलना कही अन्यत्र से नहीं दी जा सकती । वहाँ के सभी गृहों में उक्त मांगलिक कथाओं, स्तोत्रों, गायन-वादनादि मनोरंजक साधनों का कार्यक्रम चलता है । ऐसे अनेक सुरम्य प्रासादों में एक सर्वश्रेष्ठ प्रासाद है, जो सहस्र चरणों ( स्तम्भो) से सुशोभित एवं सुवर्णमय है। सभी भोर से अनुपम रत्न उसमें विभूषित हो रहे है। उन रत्नों में से कितने चन्द्रमा के समान शुभ्र स्फटिक के समान निर्मल, वैदूर्यमणि के समान देदीप्यमान, उदयकालीन सूर्य के समान मनोहर एवं तेजस्वी, अग्नि एवं सुवर्ण के समान सुन्दर है | वायु के इस वर्णन को सुनकर नैमिषारण्य निवासी तपस्वी ऋषिवृन्द परम विस्मित एवं संशयित होकर समीरण से बोले |३०१-३०६ ऋषियों ने पूछा- भगवन् वायु देव ! उस पुरश्रेष्ठ में निवास करनेवाले शिव के अनुगामी महात्मागण कौन हैं जो वहाँ सभी सुखों का अनुभव करते है । ऋषियों के इस वचन को सुनकर वायु बोले |३१०। फा०-१२६