पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०४०

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1 एकशततमोऽध्यायः जलैश्च विविधाकारैर्दोप्यद्भिरधिवासितम् । चन्द्ररश्मिप्रकाशाभिः पताकाभिरलंकृतम् रुक्मघण्टनिनादैश्च नित्यप्रमुदितोत्सवः । किनराणामधीवासः संध्याआाकारराजितैः परिवारसमन्तात्त हेमपुष्पोदकप्रभैः । यथा हि नेरुशैलेन्द्रो हेमशृङ्गविराजते ( * चामीकरमयीभिस्तु पताकाभिस्तथा पुरम् । एवं प्रसादराजोऽसौ भूमिकाभिविराजते वसन्तप्रीतमा यत्र त्र्यम्बकस्य निवेशने । लक्ष्मीः श्रीश्च वपुर्माया कीर्तिः शोभा सरस्वती देव्या वै सहिता होता रूपगन्धसमविन्ताः । नित्या ह्यपरिसंख्याताः परस्परगुणाश्रयाः) ॥ भूषणं सर्वरत्नानां योऽन्यः कान्तिविलासयोः कोटीशतं महाभाग विभज्याऽऽत्मानमात्मना । भगवन्तं महात्मानं प्रतिमोदन्त्यतन्द्रिताः १०१६ ॥२५१ ॥२५२ ॥२५३ ॥२५४ ॥२५५ ॥२५६ ।।२५७ मणियों से, कहीं रजत मय (चाँदी के) मणियों से, कहीं सुरम्य इन्द्रनील मणियों से, कहीं परम दृढ हीरों से उस विशाल प्रासाद की शोभा वृद्धि होती है। वे सभी मणियाँ भली तरह जड़ी गई है। चमकते हुए • गवाक्ष जंगले जो विविध प्रकार के बने हुए हैं. उस प्रासाद की शोभा वृद्धि के सहायक हैं। चन्द्रमा की किरणों के समान सुप्रकाशमान पताकाएँ उस पर सुशोभित हैं | २४७-२५११ सुवर्ण निर्मित घण्टों के सुरम्य स्वरों से वह प्रासाद मुखरित रहता है, प्रमोद एवं उत्सव के समारोह वहाँ नित्य मनाये जाते है | सन्ध्या कालोन मेघों की पंक्तियों के समान सुशोभित किन्नरों के आवास स्थान उस पुर में परम शोभा पाते है । वे चारों ओर से सुवर्ण निर्मित पुष्पों एवं सुवर्णमय जलराशि की तरह सुशोभित होते हैं | किन्नरों के सुरम्य भवनों से वह .पुर सुवर्णमय शिखरों से सुशोभित पर्वतराज सुमेरु को तरह शोभा पाता है। कहीं पर सुवर्णनिर्मित पताका- ओं की पंक्तियों से वह पुर परम शोभा सम्पन्न होता है । वह महाप्रासाद चारों ओर से विस्तृत भूमिका द्वारा और भी शोभा पाता है। त्र्यम्बक शिव के उस भवन में वसन्त की मूर्ति विराजमान रहती है। उसके `अतिरिक्त लक्ष्मी, श्री, माया, कीर्ति शोभा, सरस्वती आदि देवियां अपने अनुपम सौन्दर्य एवं सुगन्ध के साथ वहां निवास करती हैं वे देवियाँ सर्वदा एक रूप हैं, उनकी संख्या नहीं परिगणित की जा सकती । उनके गुण समुदाय परस्पर आश्रित रहते हैं । अर्थात् उनकी दया की शोभा उनकी क्षमा और शान्ति से होती है, और उनकी शान्ति दया से विशेष शोभाणालिनी हो जाती है | कान्ति एवं विलास की वे उत्पत्ति- स्थली हैं, समग्र रत्नों के आभूषणों से उनकी शोभा को अधिक वृद्धि होती है, वे महाभाग्यशालिनी देवियाँ सैकड़ों कोटि अंशों में अपने को आत्मा से विभक्त कर के निरालस भाव से परमैश्वर्यणाली एवं महान् भगवान् परमेश्वर को प्रमुदित करती हैं | २५२-२५७१ उनको सहस्रों की संख्या में अन्य परिचारिकाएँ रहती हैं !

  • एतच्चिह्नान्तर्गतग्रन्थे पाठव्यत्यासो दृश्यते ख. पुस्तके।