पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०३७

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१०१६ वायुपुराणम् ॥२२१ ॥२२३ ।।२२४ ॥२२५ एकयोजनकोटि स्तु पञ्चाशन्नियुतानि च । ऊर्ध्वं भागघताण्डं तु ब्रह्मलोकात्परं स्मृतम्

  • एषोर्ध्वगः प्रचारस्तु गत्यन्तं च ततः स्मृतम् । (+नित्या ह्यपरिसंख्येयाः परस्परगुणाश्रयाः ॥२२२

सूक्ष्माः प्रसवर्धामर्णयस्ततः प्रकृततः स्मृताः । येभ्योऽधिकर्ता संजज्ञे क्षेत्रज्ञो ब्रह्मसंज्ञितः) तासु प्रकृतिमत्सूक्ष्ममधिष्ठातृत्वमव्ययम् । अनुत्पाद्यं परं धाम परमाणु परेशयम् अक्षयश्चाप्यनू ह्यश्च अमूर्तिर्मूतिमानसौ । प्रादुर्भावस्तिरोभावः स्थितिश्चवाप्यनुग्रहः विधिरन्यैरनौपम्यः परमाणुर्महेश्वरः । सतेजा एप तमसो यः पुरस्तात्मकाशकः यदण्डमासीत्सौवर्णं प्रथमं स्वोपसगिकम् । वृहतं सर्वतो वृत्तमश्विराद्वयवजायत ईश्वराद्वीजनिर्भेद: क्षेत्रज्ञो बीज इष्यते । योनिं प्रकृतिसाचष्टे सा च नारायणात्मिका विभुर्लोकस्य सृष्टयर्थं लोकसंस्थानमेव च | सन्निसर्गः स तन्वा च लोकधातुर्महात्मनः पुरस्ताद्ब्रह्मलोकस्य अण्डादर्वाक्च ब्रह्मणः | X तयोर्मध्ये पुरं दिव्यं स्थानं यस्य मनोमयम् ॥२३० ॥२२६ ॥२२७ ॥२२८ ॥२२६ लोक से भी ऊपर जो ब्रह्माण्ड का अंश विद्यमान है वह एक कोटि पचास नियुत योजन तक सुना जावा है | इस ब्रह्माण्ड के ऊर्ध्वं भाग को सीमा इतनी ही है, उसके उपर किसी की गति नही है । नित्य, अपरिसंख्येय, परस्पर गुणाश्रयी, सूक्ष्म, प्रसवर्धामणी प्रकृतियाँ कहीं गई हैं । उम्ही से ब्रह्म नामधारी जगत्कर्ता क्षेत्रज्ञ का प्रादुर्भाव होता है । उन्ही प्रकृतिमय, सूक्ष्म, लक्षय, अविनश्वर, अनुत्पाद्य, अतयं, अधिष्ठा- नात्मक, परमाणु स्वरूप, परेशय, अमूर्त एवं मूर्तिमान, परम घाम परमेश्वर विराजमान रहता है । वह परमाणु स्वरूप महेश्वर प्रादुर्भाव, तिरोभाव, स्थिति, अनुग्रह, एवं दयादि का आश्रय भूत है । इन सभो विधानों में अनुपम है । वह अपने परम तेजो बल एवं प्रकाश से पुरोवर्ती तमोराशि को प्रकाशित करने वाला है | जो हिरण्यमय अण्ड समस्त सृष्टि का मूल रूप, सर्वापेक्षा महान् एवं आद्य, औपसंगिक सभी ओर से वृत्ताकार है, वह इसी परमेश्वर से आविर्भूत हुआ है ।२२१-२२७॥ उसी ईश्वर से सृष्टि के समस्त बीजो की परम्परा प्रचलित हुई है, यह क्षेत्रज्ञ स्वमेव सृष्टि का बीज स्वरूप है । प्रकृति ही सब की योनि (उत्पत्ति स्थली) है । और वह स्वयं नारायणात्मिका है। समस्त लोकों का निर्माता वह परमैश्वर्यशाली परमात्मा लोक सृष्टि एवं लोक की विधिवत् स्थिति के लिए ही प्रकृति के सहयोग से अपने शरीर द्वारा ब्रह्मलोक एवं ब्रह्माण्डादि का निर्माण करता है। उन दोनों के मध्यभाग में एक परम रमणीय दिव्य स्थान है जो मनोमय स्थान के नाम

अत्र संधिस्त्वार्षः। + धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो ग. पुस्तकेषु न विद्यते । इतः प्रभृति प्रकृतयः स्मृता इत्यन्त. पाठो घ. पुस्तके नास्ति । x एतदघं त्रुटिनं ग घ ङ पुस्तकेषु |