पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०३३

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१०१२ वायुपुराणम् ॥१८५ ॥१८६ ॥१८७ ॥१८८ मध्वं लोकैः समावेतौ निरालोकौ च तावुभौ । कूटाङ्गारप्रमाणैश्च शरीरी सूत्रनायकाः उपभोगसमस्तु सद्यो जायन्ति कर्मभिः । दुःखसकर्षश्चोग्रस्तु तेषु सर्वेषु वै स्मृतः यातनाश्चाप्यसंव्येया नारकाणां तथा स्मृताः । तत्रानुसूय ते दुःखं क्षीणे कर्मणि वै पुनः तियग्योनौ प्रसूयन्ते कर्मशेष गते ततः । देवाश्च नारकाश्चैव उर्ध्वं चाघश्च संस्थिताः धर्माधर्मनिमित्तेन सद्यो जायन्ति मूर्तयः | उपभोगार्थसुत्पत्तिरौपपत्तिककर्मतः पश्यन्ति नारकान्देवा ह्यधोनन्त्रान्ह्यधोगतान् । नारकाश्च तथा देवान्सर्वान्पश्यन्त्यधोमुखान् ॥१६० अनग्रमूलता यस्माद्धारणाश्च स्वभावतः | तस्मादूर्ध्वमधोभावो लोकालोके न विद्यते एषा स्वाभाविकी संज्ञा लोकालोके प्रवर्तते । अथाब्रुवन्पुनर्वायुं ब्राह्मणाः सत्रिणस्तदा ॥१८६ ॥१६१ ॥१६२ ऋषय ऊचु: सर्वेषामेव भूतानां लोकालोकनिवासिनाम् | संसारे संसरान्तीहयावन्तः प्राणिनश्च तनू संख्यया परिसंख्याय ततः प्रब्रूहि कृत्स्नशः | ऋषीणां तद्वचः श्रुत्वा मारुतो वाक्यमब्रवीत् ॥१६३ ॥१९४ ऊपर के दो लोक अन्य लोकों के समान होते हुए भी परम दारुण अन्धकार मय होते हैं। इन नरकों में विविध कष्टों के अनुभव करने में सक्षम शरीर को पूर्वकृत कर्मों के अनुसार धारण कर वे पापात्मा दुःख भोगते हैं। सभी नरकों में दुःख की अधिकता बतलाई जाती है । नरक निवासियों को दी जानेवाली उन यातनाओं की संख्या अगणित है । वहीं विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव कर लेने के उपरान्त जब कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है तब वे तिर्यक् योनियों में उत्पन्न होते हैं । १८५-१८७३। ऊपर रहने वाले समस्त देवताओं एवं निम्नप्रदेशों में रहने वाले नारकीय प्राणी ये सब अपने धर्माधर्म के अनुसार शरीरय धारण करते हैं इस उत्पत्ति के मूल उनके स्वयंकृत कर्म हैं, उनऔत्पत्तिक कर्मों के अनुसार फल भोगने के लिए हो वे शरीर धारण करते हैं । देवगण इन अघोभाग में अवस्थित नारकीय प्राणियो को अधोमुख हुए देखते हैं इसी प्रकार वे नारकीय भी समस्त देवताओं को अधोमुख देखते हैं। उन लोकों में अग्रभाग एवं मूलभाग का कोई भेद नहीं है, उनकी स्थितियों हो स्वाभाविक है, इसी कारण से लोकालोक में कोई ऊपर अथवा निम्न का भेद भाव नहीं है | लोका- लोक की यह स्वाभाविक संज्ञा प्रचलित है। वायु की इन बातों के सुनने के उपरान्त यज्ञकर्ता ब्राह्मणों ने पुनः पूछा ११८८-१९२॥ ऋपियों ने कहा—भगवन् वायु देव ! उस लोका-लोक में निवास करने वाले समस्त प्राणियो की जितने इस संसार में विचरण करते हैं उनको संख्या क्या है, वे कौन हैं ये सब बातें सम्पूर्णतया मुझे बतलायें | ऋपियो को इस जिज्ञासा को सुनकर मारत बोले ११६३-१६४१ ; .