पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०२४

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एकशततमोऽध्यायः समुद्रं मध्यमं चैव परार्धमपरं ततः । एवमष्टादशैतानि स्थानानि गणनाविधौं शतानीति विजानो यात्संज्ञितानि महर्षिभिः | कल्पसंख्या प्रवृत्तस्य परार्धं ब्रह्मणः स्मृतम् तावच्छेषोऽपि कालोऽस्य तस्यान्ते प्रतिसृज्यते । पर एष परार्धश्च संख्यातः संख्यया मया यस्मादस्य परं वीर्य परमायुः परं तपः | परा शक्तिः परो धर्मः परा विद्या परा धृतिः परं ब्रह्मा परं ज्ञानं परसैश्वर्यमेव च । तस्मात्परतरं भूतं ब्रह्मणोऽन्यन्न विद्यते परे स्थितो होष परः सर्वार्थेषु ततः परः । संख्यातस्तु परा ब्रह्मा तस्यार्ध तु परार्धता संख्येयं चाप्यसंख्येयं सततं चापि तत्त्रिकम् | संख्येयं संख्यया दृष्टमपरार्धाद्विभाष्यते रांशी दृष्टे न संख्याऽस्ति तदसंख्यस्य लक्षणम् । अनपत्यं सिक्तास्वेषु (?) दृष्टवान्पञ्चलक्षणम् ॥१०६ ईश्वरैस्तत्प्रसंख्यातं शुद्धत्वाद्दिव्यदृष्टिभिः । एवं ज्ञानप्रतिष्टत्वात्सर्वं ब्रह्माऽनुपश्यति ॥१०८ ॥११० १००३ ॥१०२ ॥१०३ ॥ १०४ ॥१०५ ॥१०६ ॥१०७ एक पराई काल सृष्टि रहित अवस्था में व्यतीत होता है । उसके बाद पुनः सृष्टि का प्रारम्भ होता है, इस प्रकार एक सृष्टि के आरम्भकाल से दूसरी सृष्टि के आरम्भ का काल दो परार्द्ध अर्थात् एक परकाल होता है | पर और परार्द्ध इन दोनों कालों को संख्याओं द्वारा मैं बतला चुका १६८-१०४१ भगवान् ब्रह्मा का यतः पराक्रम परम अतिशय महान् एवं ( सोमा रहित ) है, परम आयु है, तपस्या परम है, शक्ति परा है, धर्म परभ हैं, विद्या परा है, धैर्य परम है, एवं ब्रह्मज्ञान, परम है, ऐश्वर्य परम है, संक्षेप में निष्कर्षं यह कि उनसे बढ़कर, किसी परम किसी वस्तु में कोई अन्य नहीं है, वही एक मात्र सभी वस्तुओं की परम सीमा में मर्यादा रूप से अवस्थित हैं, इसी कारण से समस्त सासांरिक पदार्थों में उन्हें ही पर पद से विशिष्ट समझना चाहिये, उनके इस महान् अधिकार-काल के आधे के भाग को इसीलिये परार्द्ध कहा जाता है । पुरुष प्रकृति एवं ब्रह्मा - ये तीनों संख्याओं द्वारा सर्वथा असंख्येय है, अर्थात् गणनाओं से इनकी इयत्ता नहीं बाँधी जा सकती। किन्तु ऐसा होने पर भी संख्याओं द्वारा इनके पारस्परिक न्यूनाधिषय का कुछ अनुमान किया जाता है, इसी कारण से इन्हे संख्येय कहते हैं, वस्तुतः परार्द्ध की पूर्ववर्तिनी संख्याओं की गणना की जा सकती है। उससे परवर्तिनी संख्याएँ व्यावहारिक दृष्टि किसी प्रकार व्यक्त कर दी जाती हैं किन्तु उनकी गणना असंख्य में ही की जाती है |१०५ १०८। एक महान् राशि की इकाइयों की संख्या नहीं की जाती । उसे असंख्य का लक्षण मानते है, क्योंकि उनकी गणना में सारी संख्याएँ ही समाप्त हो जाती है, कोई संख्या शेष नहीं रहती । परार्द्ध, पर, ब्रह्मा, प्रकृति एवं पुरुष - इन पाँचों के तात्त्विक निर्णय में कोई पूर्व निर्दिष्ट विधान दृष्टि गत नहीं है। केवल शुद्धि बुद्धि, दिव्य दृष्टि सम्पन्न योगाभ्यास परायण लोग ही अपनी महान् शुद्धता के कारण उनके तत्त्व निर्णय में समर्थ होते है। इन सभी तत्त्वों को, भगवान् ब्रह्मा, समस्त ज्ञान राशि के एक मात्र आगार स्वरूप होने के कारण यथार्थतः देखते हैं । १०९-११०। 1