पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०१

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८२ वायुपुराणम् सर्गाः परस्परस्याथ कारणं ते बुधैः स्मृताः । दिव्यौ सुपण सयुजौ सशाख पटविद्रुमौ । एकस्तु यो द्रुमं वेत्ति नास्यः सर्वात्मनस्ततः ॥११६ द्यौर्भूधनं यस्य विप्राः स्तुवन्ति खं नाभिधे चन्द्रसूयौं च नेत्रे । दिशः श्रोत्रे चरणौ चास्य भूमिः सोऽचिन्त्यात्मा सर्वभूतप्रसुतिः ।।१२० वक्त्रादस्य ब्राह्मणाः संप्रसूता यद्वक्षस्तः क्षत्रियाः पूर्वभागे । वैश्याश्चोरोयंस्य पद्भ्यां च शूद्राः सर्वे वर्णा गात्रतः संप्रसूताः महेश्वरः परोऽव्यक्तादण्डमव्यक्तसंभवम् । अण्डोज्जज्ञे पुनर्नहा येन लोकाः कृतास्त्विमे ॥१२२ ॥१२१ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते देवादिसृष्टिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ।। ६ ।। पर समानाकार और समानचारी दो दिव्य पक्षी निवास करते हैं। उनमें केवल एक को वृक्ष का ज्ञान है । उस सर्वात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई इस भू तत्व को जानने वाला नहीं है ।११६। विप्रगण ! भूलोक को जिसका शिर, आकाश को नाभि, चन्द्र सूर्य को नेत्र, दिशाओं को कान और भूमि को चरण कहकर जिसकी स्तुति करते है। जिसके मुख से ब्राह्मण छाती के पूर्वी भाग से क्षत्रिय, ऊरु से वैश्य और चरणों से शूद्र इस प्रकार सब वर्ण जिसके शरीर से उत्पन्न हुए वही अचिन्त्य परमारमा भूतों का उत्पादक है ।१२०१२ सब महेश्वर अव्यक्त से सभी अण्ड की उत्पत्ति हुई। लण्ड से प्रहा का जन्म हुआ और ब्रह्मा ने चराचर त्रैलोक्य को उत्पन्न किया ।१२२। श्रीवायुमहापुराण का देवादिसृष्टिवर्णन नामक नवाँ अध्याय समाप्त ।।६।