पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१००५

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६५४ वायुपुराणम् अथाम्भसावृते लोके प्राहुरेकार्णवं दुधाः । अथ भूमितलं खं च वायुश्चैकार्णवे तदा ॥ नष्टे भातेऽवलीनं तत्प्राज्ञायत न किंचन ॥१७६ ॥१८० पार्थिवास्त्वथ सामुद्रा आपो हैमाश्च सर्वशः । प्रसरन्त्यो व्रजन्त्येकं सलिलाख्यां भजत्युत आगतागतिकं चैव तदा तत्सलिलं स्मृतम् । प्रच्छाद्य तिष्ठति महीमर्णवाख्यं च तज्जलम् ॥१८१ आभान्ति यस्मात्ता भाभिर्भाशब्दो व्याप्तिदीप्तिषु | भस्म सर्वमनुप्राप्य तस्मादम्भो निरुच्यते ॥ १८२ नानात्वे चैव शीघ्र च धातुर्वै अर उच्यते । एकार्णवे तदाऽऽपो वै न शीघ्रास्तेन ता नराः तस्मिन्युगसहस्रान्ते दिवसे ब्रह्मणो मते । तावन्तं कालमेवं तु भवत्येकार्णवं जगत् ॥ तदा तु सर्वव्यापारा निवर्तन्ते प्रजापतेः ॥१८३ एवमेकार्णवे तस्मिन्नष्टे स्थावरजङ्गमे । तदा स भवति ब्रह्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् सहस्रशोर्षा सुमनाः सहस्रपात्सहस्रचक्षुर्वदनः सहस्रवाक् । सहस्रबाहुः प्रथमः प्रजापतिस्त्रयीपथी यः पुरुषो निरुच्यते ॥१८४ ॥१८५ ॥१८६ समस्त लोक जल राशि से घिर जाते हैं, एकार्णव ( एक समुद्र ) कहते है । उस एकार्णव में पृथ्वी, आकाश अथवा वायु का कोई विशेष स्थान वा सन्निवेश नही मालुम पड़ता, सच पृथक् अस्तित्व मिट जाता है, सभी एक दूसरे में विलीन हो जाते है, कोन क्या है - यह कुछ नही मालूम पड़ता पार्थिव (पृथ्वी सम्वन्धी ) सामुद्र (समुद्रीय) एवं हैम ( सुवर्ण सम्बन्धी, तैजस ) जलराशि चारों ओर प्रवाहित होती हुई उस समय एक मात्र सलिल (जल) की पदवी धारण करती है, अर्थात् उनको अलग सत्ता नही रह जाती ११७९-१८०१ समस्त जलराशि केवल अनवरत इधर उधर आती जाती रहती है- ऐसा कहा जाता है, समुद्र के रूप में परिणत वह जलराशि समस्त महीमण्डल को अच्छादित कर लेती है ११८११ भा शब्द प्रकाश और व्याप्ति करने के अर्थ मे व्यवहृत होता है, इस समस्त जगत्-मण्डल के भस्म हो जाने के बाद अपनी व्याप्ति एवं प्रभा से सव ओर प्रकाशित होता है। अतः उसका नाम अम्भ ( जल ) कहा जाता है, यही इस नाम के पड़ने का कारण है । अर् घातु अनेकत्व एवं शीघ्रत्व को प्रकट करता है, एकार्णव होते पर यतः वह जलराशि शीघ्रता से नहीं चलती, अतः उसका नाम नार कहा जाता है |१८२-१८३१ एक सहस्र युग के समाप्त होने पर ब्रह्मा का एक दिन व्यतीत होता है, उतने ही समय तक यह समस्त जगत् एकार्णव के रूप में परिणित रहता है, उस भवधि मे प्रजापति ब्रह्मा के समस्त व्यापार निवृत्त हो जाते हैं । १८४ इस प्रकार महान् एकाणंव में जब समस्त स्थावर जंगमात्मक जगत् नष्ट हो जाता है, तब सहस्रनेत्र, सहस्र- चरण ॥१८५॥ सहस्रशीर्षा, सुन्दर मन वाले, सहस्रचक्षु सहस्रमुख सहस्रवचन वोलनेवाले, सहस्रबाहु त्रयो (वेदत्रयो) पथानुगामी, आदित्य के समान प्रखर तेजस्वी स्वरूपवाले, समस्त भुवनरक्षक, अपूर्व, अद्वितीय, अपने