पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१००४

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शततमोऽध्यायः ततस्ते जलदा वर्षं मुञ्चन्ति च महौघवत् | सुघोरमशिवं सर्व नाशयन्ति च पावकम् प्रवृष्टश्च तथाऽत्यर्थं वारिभिः पूर्यते जगत् | अद्भिस्तेऽभिभूतं च तदाऽग्निः प्रविशत्यपः नष्टे चाग्नौ वर्षशते पयोदाः पाकसंभवाः । प्लावयन्ति जगत्सर्वं बृहज्जलपरिस्रवैः धाराभिः पूरयन्तीमं चोद्यमाना स्वयंभुवा । अन्ये तु सलिलौघैस्तु वेलामभिभवन्त्यपि ॥ साद्रिद्वोपान्तरं पृथ्वी अद्भिः संछाद्यते तदा तस्य वृष्टया च तोयं तत्सर्व हि परिमण्डितम् । प्रविशत्युदधौ विप्राः पीतं सूर्यस्य रश्मिभिः आदित्यरश्मिभिः पीतं जलमश्रेषु तिष्ठति । पुनः पतति तद्भूमौ तेन पूर्यन्ति चार्णवाः ततः समुद्राः स्वां वेलां परिक्कामन्ति सर्वशः । पर्वताश्च विशीर्यन्ते महो चाप्सु निमज्जति ततस्तु सहसोद्धान्तः पयोदांस्तानभस्तले । संवेष्टयति घोरात्मा दिवि वायुः समन्ततः तस्मिन्नेकार्णवे घोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे । पूर्ण युगसहस्रे वै निःशेषः कल्प उच्यते 1 ॥१७० ॥१७१ ॥१७२ ॥१७३ ॥१७४ ॥१७५ ॥१७६ ।। १७७ ॥१७८ मेघगण उस परम घोर अमङ्गलकारी अग्नि को सर्वत्र नष्ट कर देते हैं । १६८-१७०३ उस अनन्त जल राशि से समस्त जगन्मण्डल पूर्ण हो जाता है, अग्नि का सारा तेज़ जल से शान्त हो जाता है, वह जल में प्रविष्ट होकर विलीन हो जाती है । अग्नि के नष्ट हो जाने के उपरान्त समस्त ज्वलनात्मक कार्यो के परिणाम से उत्पन्न पर्जन्य गण सौ वर्षों तक अपनी अकूत जलराशि की दृष्टि द्वारा समस्त जगग्मण्डल को प्लावित करते हैं । स्वयम्भू की प्रेरणा से प्रेरित होकर वे अपनी धाराओं से जगत् को पूर्ण कर देते हैं। कुछ पयोद अपनी जल राशि से मर्यादा को भी अतिक्रांत कर देते हैं । उस समय पृथ्वी के समस्त द्वीप, पर्वत एवं प्रदेश जल से आच्छाषित हो जाते हैं । १७१-१७३१ सूत कहते हैं, विप्रवृन्द ! पर्जन्यों से वृष्टि द्वारा बरसाया गया जल-समूह, जितना भी होता है, जाकर समुद्र में प्रवेश करता है, वहां सूर्य की किरणों से पिया जाता है, सूर्य की किरणों से पिये जाने के बाद वह जल बादलों में स्थित होता है। फिर वही पृथ्वी पर गिरता है, और फिर से सारे समुद्र भर जाते हैं और भर कर अपनी मर्यादा को भी बांध जाते हैं, जिसके कारण पर्वत समूह छिन्न भिन्न होकर गिर पड़ते हैं, पृथ्वी पानी में छिप जाती है । १७४-१७६१ अस्तु, इस प्रकार जब मेघगण आकाशमण्डल में स्थित होकर वृष्टि से समस्त जगन्मण्डल को व्याप्त कर देते हैं, तब सहसा महान् वायु घोर स्वरूप धारण कर उन बादलों को चारों ओर से आकाश में घेर लेता है, उस महान् भीषण, एक समुद्र के रूप में परिणत जगत् के सारे स्थावर जंगमात्मक जीव निकाय नष्ट हो जाते हैं, और ऐसी अवस्था में एक सहस्र युग व्यतीत हो जाता है, इसी अवस्था को कल्प कहते हैं ।१७७-१७८ । पण्डित लोग उस स्थिति को, जब कि