पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१००२

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शततमोऽध्यायः ॥१५२ ॥१५३ ॥१५४ सर्वलोकप्रणाशं च सोऽग्निर्भूत्वा तु मण्डली | चतुर्लोकमिदं सर्वं निर्दहत्याशु तेजसा ततः प्रलोयते सर्वं जङ्गमं स्थावरं तदा । निर्वृक्षा निस्तृणा भूमि: कूपृष्ठसमा भवेत् अम्बरीषमिवाssभाति सर्वं मारीषितं जगत् । सर्वमेव तदाऽचिभिः पूर्ण जाज्वल्यते नभः पाताले यानि सत्त्वाति महोदधिगतानि च । ततस्तानि प्रलीयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च द्वीपाश्च पर्वताश्चैव वर्षाण्यथ महोदधिः । सर्वं तद्भस्मसाच्चक्ने सर्वात्मा पावकस्तु सः समुद्रेभ्यो नदीभ्यश्च पातालेभ्यश्च सर्वतः | पियन्नपः ससिद्धोऽग्निः पृथिवीमाश्रितो ज्वलन् ॥१५५ ततः संवर्तकः शैलानतिनस्य महांस्तथा । लोकान्संहरते दोप्तो घोरः संवर्तकोऽनलः ततः स पृथिवीं भित्त्वा रसातलमशोषयत् । निर्दहा तांस्तु पातालान्नागलोकसथादहत् अधस्तात्पृथिवीं दग्ध्वा ऊर्ध्वं स दहते दिवम् | योजनानां सहस्राणि अयुतान्यर्बुदानि च उदतिष्ठच्छिखास्तस्य बह व्यः संवर्तकस्य तु । गन्धर्वाश्च पिशाचांश्च समहोरगराक्षसान् ॥ तदा तहति संदीप्तो गोलकं चैव सर्वशः ॥१५६ ॥१५७ ।।१५८ ॥१५६ ६५१ ॥१५० ॥१५१ प्रकार जब बहुत अधिक वृद्धि को प्राप्त हो जाती हैं, तब परस्पर मिल कर एक ज्वाला के रूप में परिणत हो जाती है। एक मण्डलाकार स्वरूप धारणकर वह अग्नि चारों लोकों को अपने परम तेज से शीघ्र ही भस्म कर देती है. उस समय सभी लोकों का विनाश हो जाता है, सभी स्थावर जंगम जीवनिकाय विलीन हो जाते हैं, पृथ्वी वृक्षों एवं तृणों से विहीन होकर कच्छप की पीठ की भांति हो जाती है |१४९-१५१ | चारों ओर से इस प्रकार वृक्षादि रहित जगत् एक भाड़ की तरह दिखाई पड़ता है, सारा आकाश मण्डल ज्वालाओं से देदीप्यमान हो जाता है, पाताल में जो जीव समूह रहते हैं, महान् समुद्रों में जिन जन्तुओं का निवास रहता है, वे भी विलीन होकर पृथ्वी रूप में परिणत हो जाते है ।१५२-१५३॥ सभी जीवों में व्याप्त रहने वाले अग्निदेव सातों द्वीपों, पर्वतों, समस्त वर्षों (देशों) एवं महासमुद्रों तक को भस्म कर देते हैं । सर्वत्र व्याप्त अग्नि उस समय जब समुद्रों, नदियों, पातालस्थ प्रदेशों से जलरासि का पान करते हुए परम जाज्ज्वल्यमान होकर पृथ्वी का आश्रय लेती है, तब महान् संवर्तक नामक अग्नि पर्वतों का अतिक्रमण कर घोर रूप हो समस्त लोकों का विनाश करने लगती है । पृथ्वी का भेदन कर वह रसातल को शुष्क कर देती है, पाताल के सभी प्रदेशों को भस्म कर वह नागों का लोक जला देती है | १५४ - १५७७ निम्न भूमण्डल का दहन करने के उपरान्त ऊपर आकाशस्थ प्रदेशों एवं पिंडों का दहन करती है, उस समय महान् संवर्तक की ज्वालाएँ सहस्रों, लाखों अरबों योजनों तक ऊपर को उठती हैं । गन्धर्वो, पिशाचों, सर्पों एवं राक्षसो के आश्रयों को सर्वांशतः भस्म करने के उपरान्त गोलोक को भी वह भस्म कर देती है |१५८-१५९। इस प्रकार कालाग्नि घोर स्वरूप धारण कर भू, भुव स्व एवं मह-