पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१००१

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६५० वायुपुराणम् ॥१४४ भूय एव विवर्तन्ते व्याप्नुवन्तो वनं शनैः । भौमं फाष्ठं धनं तेजो भृशमद्भिस्तु दोप्यते तस्मादुदकं सूर्यस्य तपतोऽपि हि कथ्यते । नादृष्ट्या "तपते सूर्यो नावृष्ट्या परिविष्यते नावृष्ट्या परिदिन्वन्ति वारिणा दीप्यते रविः | तस्मादपः पिवन्यो वै दीप्यते रविरम्बरे तस्य ते रश्मयः सप्त पिदन्त्यम्भो सहार्णवात् । तेनाऽऽहारेण संदीप्ताः सूर्याः सप्त भवन्त्युत ततस्ते रश्मयः सप्त सूर्यभूताश्चर्तुदशम् । चतुर्लोकमिमं सर्वं दहन्ति शिखिनस्तदा प्राप्नुवन्ति च भाभिस्तु ऊर्ध्वं चाधश्च रश्मिभिः | दोप्यन्ते भास्कराः सप्त युगान्ताग्निप्रतापिनः || ते वारिणा च संदीप्ता वहुसाहारश्मयः | खं समावृत्य तिष्ठन्ति निर्दहन्तो वसुंधराम् ततस्तेषां प्रतापेन दह्यमाना वसुंधरा । साद्रिनद्यर्णवा पृथ्वी विस्नेहा समपद्यत दोप्ताभिः संतताभिश्च चित्राभिश्च समन्ततः । अधश्चोध्वं च तिर्यक्च संरुद्धं सूर्यरश्मिभिः सूर्याग्नीनां प्रवृद्धानां संसृष्टानां परस्परम् | एकत्वमुपयाताना मेकज्वालं भवत्युत ॥१४६ ॥१४० ॥१४१ ॥१४२ ||१४३

॥ १४७ ॥१४८ ॥१४६ शनैः पृथ्वीस्थ समस्त जल राशि में घ्याप्त होकर अधिकाधिक विवर्तित हो जाती हैं । भौम, काष्ठ, वन, तेज प्रभृति में पुनः पुनः परिव्याप्त होकर वे रश्मियाँ जल से बहुत अधिक प्रदीप्त हो उठती हैं । ज्वलनात्मक सूर्य के अधिक ताप का कारण इसीलिए जल कहा जाता है, अनावृष्टि से सूर्य तप्त नही होते और न अनावृष्टि से उनके मण्डल सन्निवेश आदि में ही कोई विशेष दोप्ति होती है। यही नहीं वल्कि अनावृष्टि से उनको रश्मिय पृथ्वोस्थ पदार्थों के रसादि का संचयन नही कर पाती हैं। केवल जल से रवि उद्दीप्त होते हैं । अपनी किरणों द्वारा जलराशि का पान करते हुए वे आकाश मण्डल में प्रकाशित होते हैं । उनको वे सातों किरणें समुद्र से जल का पान करती हैं । उस जल रूप आहार से संदीप्त होकर सूर्य सात जाते हैं |१४०-१४३। इस प्रकार उनको वे सातों रश्मिर्या सूर्य रूप हो चारों दिशाओं में व्याप्त होकर चारों लोकों को अग्नि की भांति दग्ध कर देती हैं। नीचे ऊपर सर्वत्र अपनी उन प्रखर तेजस्विनी किरणों द्वारा युगान्तकालीन अग्नि के समान परम उद्दीप्त वे सातों भास्कर परम तप्त हो जलराशि के पान करने के कारण उत्तरोत्तर अधिक उद्दीप्त होनेवाली अनेक सहस्र वे सूर्यवन्द समस्त वसुन्धरा को दग्ध करते हुए सारे आकाश मण्डल में प्रकाशित होते हैं | उन सबों के परम प्रखर प्रताप से दग्ध होती हुई वसुन्धरा पर्वतों, नदियों एवं समुद्रों समेत सूखी हो जायगी, वही पर आहर्ता के चिह्न भी शेष न रहेंगे । चारों ओर से विचित्र रंग बिरंगी परम तेजस्विनी उन सूर्य रश्मियों से समस्त पृथ्वी मण्डल, ऊपर नीचे सर्वत्र व्याप्त हो जाता है |१४६-१४८॥ सूर्य के प्रताप से उत्पन्न होने वाली अग्नियाँ इस उठते हैं ।१४४-१४५ रश्मियों से समन्वित अत्राऽऽत्मनेपदमार्पम् ।