पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/१०९

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रुद्राष्टाध्यायी - [ षष्ठो- 1 पक्कफल अपनी प्रथिसे टूटकर भूपतित होता है इस प्रकार शिवकी कृपासे जन्ममरणबंधन से चिरमुक्त होजाऊ और स्वर्गरूपमुक्तिसे न छूटू | अभ्युदय निश्रेयसरूप दोनों फलसे भ्रष्ट न होऊं, पतिके प्राप्त करानेवाले वा सपूर्णगुणसपन्नमुन्दरपतिके विधान करनेवाळे दिव्ययश सौर- अपूर्णधर्माधर्म के ज्ञाता व्यंकदेव शिषको पूजन करताहू, जैसे उर्वारुफ बंधन से छूटता है इस प्रकार इस माता पिता भ्रातृवर्गसे वा इनके गोत्रसे छूटकर विवाह उपरान्त पतिके सभी- यसे मत छुटाओ | आशय यह कि पिताके गोत्र और घरको छोड़कर पति गोत्र और घर शिवजी के प्रसादसे सदा निवाल करें ॥ ५ ॥ विशेष- पहला मन्त्री महामृत्युजय कहलाता है इसको विधिपूर्वक शिवपूजन करके जप करने से अपमृत्यु निवारण होती है इसमें सदेह नहीं, और इस मत्रसे यह भी विदित होता है कि मुक्त होकर फिर संसार में नहीं आता इस मंत्र से तीन दिनतक व्रत पर चरुको सो आहुति देतो १०० वर्ष जिये ॥ १॥ मन्त्रः | एतसे । रुद्राय॒सन्तेन॑प॒रोम॒ज॑बुतीतीहि ॥ अद्वैततधन्वपिनकवासु कृत्तिवासा॒ऽअ- हँसन्न शिवोतीहि ॥ ६ ॥ ॐ एतत्त इत्यस्य वसिष्ठ ऋषिः । भुरिगास्तारपंक्तिश्छन्दः । रुद्रो देवता | वंशयष्टिसंसर्जन विनियोगः ॥ ६ ॥ भाष्यम् - ( रुद्र ) हे रुद्र ( एतत् ते ) सव ( व्यवसम् ) हविःशेषारख्यं भोज्यम " अवसशब्देन देशान्तरं गच्छतो मार्गमध्ये तटाकादिसमीपे भोक्तव्य ओदनविशेष उच्यते" तेन सहितस्त्वम् ( गुजवतः ) पर्वतात् "मूजवान्नाम कश्चित्पर्वतो रुद्रस्य वासस्थानम्” (पर: ) परभागवर्ती सन् (अतीहि ) अतिक्रम् गच्छ कीडशस्त्वम् ( व्यववतधम्या ) व्यवरोपिठधनु यस्मद्विरोधिनां त्वया निवारितवादित ऊर्ध्वं धनुषि ज्या समारोपणस्य प्रयोजनाभावादव रोपणमेवेदानीं युक्तं तथा ( पिनाकवासः ) पिनाकारख्यं त्वदीयं धनुरावस्ते सर्वत व्याच्छादयतीति पिनाकवासः यया धनुर्हा आणिनो न बिभ्यति तथा त्वदीयं धनुर्वस्त्रादिना प्रच्छाय गच्छेत्यर्थः । हे रुद्वम् ( कृत्तिवासाः ) धर्माम्बरः (नः ) अस्मान् ( हिंसन् ) हिंसामकुर्वन ( शिवः ) अस्मदीय पूजया सन्तुष्टः कोपरहितो भूत्वा ( अतीहि ) पर्वतमतिक्रम्य गच्छ | [ यजु० ३ । ६१ ] ॥ ६॥