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ऽध्यायः ५० ] माष्यसहिता । मन्त्रः । नमो॑स्तुरु॒द्देन्फ्यु॑ोयेपृ॑थि॒ष्यव्येषामन्नमिषं - वः॥ तेन्फ्योदशप्प्राचीर्द्दर्शदक्षिणादर्शप्प्रुती- चोर्द्दशोदींची ईशोर्खा ॥ तेन्फ्यो॒ो नमो॑ऽअस्तु तेनौवन्तुतेनों मृडयन्तेयन्हिष्म्मोयश्चनो द्वेष्टित मे॑षाअम्मैइम्सद६६॥ इतिसहितायांरुद्रपाठेपञ्चमोऽध्याय: ५ || ॐ नमोस्त्वित्यस्य परमेष्टी प्रजापतिर्वा देवा ऋपयः । धृतिश्छन्दः । रुद्रो देवता | वि० पू० ॥ ६६ ॥ माष्यम् (रुभ्यः) रुद्रेभ्यः ( नमः ) नमस्कारः ( ये ) रुद्राः ( पृथिव्याम् ) या वर्तन्ते ( वशम्) (इपवः ) वाणा (अन्नम् ) अदनीय वस्तु आयुधम् अयथानमक्षणे चौर्य वा भवार्थ रोगमुत्पाद्य जनान् घ्नन्ति तेभ्यो नमः तेऽस्मानचन्तु | शेषं पूर्ववत् ।। ६६ ।। भावार्थ - उन रुद्रों के निमित्त नमस्कार है, जो रुद्र पृथिवी में स्थित है, जिनके बाण अन्न है, जो अत्रद्वाराही सजन, पालन और मिटपाहारविहारसे रोग उत्पन्न कर प्राणियोंका संहार करते हैं, उनके निमित्त नमस्कार है, शेष पूर्वके समान ॥ ६६ । भावार्य - जिस समय मनुष्यको रुद्रका सर्वभाव विदित होजाय और उसकी दृष्टि में यह भाव समाजाय कि, यह सब कुछ रुद्रद्वारा होरहा है वही शकर रुद्र नीलकोहित कपक्षी आदि अनेक नामको कार्यानुसार धारण कर रहा है उसके सिवाय नहीं है तब वह अद्वैतनिष्ठ होता है और रुद्रकी महिमाको प्राप्त हो जीवन्मुक्त होकर विचरता है । इस प्रकार इस षोडश अध्याय में रुद्रदेवताका संपूर्ण जगत् में अधिकार वर्णन किया है अर्थात् सपूर्ण जगत् में वह परमात्मा रुद्ररूपसे व्याप्त है कोई स्थान उससे भिन्न नहीं है इसी कारण स्थावर अगम सन- होको प्रणाम किया है, इष्ट अनिष्ट सब उसीके द्वारा होता है, त्रिलोकीका उत्पसिं, पालन, प्रख्य सन रुइसेही होता है, (एको स्ट्रो न द्वितीयः) इस श्रुतिके अनुसार एक अद्वैतरुद्रका प्रतिपादन होता है, वेद नुसार उनकी उपासना करनी चाहिये, रुद्रकी उपासनासे सब उपद्रव दूर होकर चारों पदार्थों की प्राप्ति होती है इसका पाठ करनेसे सब मनोरथ सिद्ध होते है ॥६६॥ इति श्रीरुद्राष्टके पण्डितज्वालाममा दमिश्रकृत संस्कृतार्यभाषाभाष्यसमन्वितः पचमोऽध्यायः ॥