सर्व लौकिक और वैदिक (व्यवहृतिः) व्यवहार (अध्यासमूला) अध्यासमूलक ही है (इतिसिद्धम्) यह सिद्ध हुआ ॥५१॥
अब वैराग्य की प्राप्ति के लिये अध्यास जनित अनर्थ परंपरा को ढाई श्लोकों से कहते हैं
धर्माद् देवत्वमेति व्रजति पुनरधः पातकैः स्था
वरादीन् देहान् प्राप्य प्रणश्यन् क्वचिदपि
लभते मानुषत्वं च ताभ्याम्। कर्मज्ञानोभये न
व्रजति विधिपद' मुच्यते कोपि तस्मिन् रागी
प्रत्येति भूयो जनिमिति विषमं बंभ्रमीतीह
लोकः ॥५२॥
मनुष्य वम स दवभाव का प्राप्त हाता ह, पाप स नरक को जाता है, स्थावरादि देह को प्राप्त होकर नाश को प्राप्त होता है। क्वचित कोई पुण्य पाप के उदय से मनुष्यत्व प्राप्त करता है | कम श्रार उपासना करक . काइ ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है फिर उनमें कोई वहां से मुक्त होता है और रागी वहां से इस लोक में फिर जन्म लेता है । ऐसी विषमता से जीव संसार में भ्रमण किया करता हं ॥५२॥
(लोकः) जंन अर्थात् अज्ञानकृत भ्रम से वैदिक कम का अनुष्ठान करने वाला पुरुष (धर्मात्) वेदविहित कर्मानुष्ठान