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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११३८

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दशाधिकशततमोऽध्यायः १११७ येsबान्धवा बान्धवा वा येन्यजन्यजन्मनि बान्धवाः । तेषां पिण्डो सया दत्तो ह्यक्षय्यमुपतिष्ठताम् || पितृवंशे मृता ये च मातृवंशे च ये मृताः । गुरुश्वशुरवन्धूनां ये चान्ये बान्धवा मृताः ॥५१ ॥५२ ॥५३ ये मे कुले लुप्तपिण्डाः पुत्रदारविवर्जिताः । क़ियालोपगता ये च जात्यन्धाः पङ्गवस्तथा विरूपा आमगर्भाव ज्ञाताज्ञाताः कुले मम । तेषां पिण्डो मया दत्तो ह्यक्षय्यमुपतिष्ठताम् आ ब्रह्मणो ये पितृवंशजाता मातुस्तथा वंशभवा मदीयाः । कुलद्वये ये मम दासभूता भृत्यास्तथैवाऽऽश्रित सेवकाच मित्राणि शिष्याः पशवश्च वृक्षा दृष्टा ह्यदृष्टाश्च कृतोपकाराः । जन्मान्तरे ये मम संगताच तेभ्यः स्वधा पिण्डमहं ददामि एतैश्च सर्वमन्त्रैस्तु स्त्रीलिङ्गान्तं समुह्य च | पिण्डान्दद्याद्यथा पूर्वं स्त्रीणां मात्रादिकालमात् स्वगोत्रे परगोत्रे वा दंपत्योः पिण्डपातनम् | अपथनिष्फलं श्राद्धं पिण्डं चोदकतर्पणम् ॥५४ ॥५५ ॥५६ ॥५७ जन्मों के बान्धव हैं, उन सबको हमारा दिया हुआ यह पिंड अक्षय तृप्ति करने वाला हो । पिता के वंश में जो मर चुके हैं, माता के वंश में जो मर चुके है, हमारे गुरु, श्वशुर एवं बन्धुवर्गो के वंश में जिनकी मृत्यु हो चुकी है, जो कोई अन्य बन्धु बान्धव मृत्यु को प्राप्त हुए हों, हमारे कुल में उत्पन्न होने वाले ऐसे लोग, जिनको पिंडदान करने वाला कोई नहीं है, पुत्र स्त्री आदि से जो रहित रहे, जिनकी क्रिया लुप्त हो गई, जन्म से ही जो अन्धे थे, पंगु थे, कुरूप थे, गर्भावस्था में ही जिनकी मृत्यु हो गई जिन्हें कोई जानता है कोई नहीं जानता, उन सबको हमारा दिया हुआ यह पिंड अक्षय तृप्ति प्रदान करने वाला हो ।५१-५३। ब्रह्मा से मैकर हमारे पिता के वंश में जो कोई उत्पन्न हुए हों, तथा मेरी माता के वंश में जो उत्पन्न हुए हों, इन दोनों कुलों को, जो दासता एवं भृत्यता के बन्धन में बँधे हुये थे, माश्रित एवं सेवकों में जिनकी गणना की जाती थी, मित्र थे, शिष्य थे पशु, वृक्ष दृष्ट एवं अदृष्ट रूप से उपकारक थे, अन्य जन्म में जिनके साथ हमारी सङ्गति थी, उन सबको उबारने के लिये मैं यह पिण्ड प्रदान कर रहा हूँ" १५४-५५। इन सभी उपर्युक्त मंत्रों का उच्चारण कर माताओं के लिये क्रमानुसार स्त्रीलिंग विशेषण लगाकर पिण्ड प्रदान करना चाहिये । अपने गोत्र के हों अथवा अन्य गोत्र के हों, स्त्री पुरुष के लिये पिण्डदान की विधि पृथक् पृथक् विहित है, जो पृथक् रूप में नहीं करता उसका श्राद्ध पिण्डदान एवं तर्पण सभी निरर्थक है । पिण्ड रखने के पात्र में तिल छोड़कर फिर उस को पवित्र जल से पूर्णकर इन मन्त्रों का उच्चारण करते हुए क्रमानुसार प्रदक्षिणा पूर्वक पिण्डदान करना