पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११३९

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[१११८ वायुपुराणम् पिण्डपात्रे तिलान्क्षिप्त्वा पूरयित्वा कुशोदकैः । मन्त्रेणानेन पिण्डांस्तान्प्रदक्षिणयथाक्रमम् ॥ परिषिच्य त्रिधा सर्वान्त्रणपत्य समापयेत् ॥५८ पित न्विसृज्य चाऽऽचाम्य साक्षिणः श्रावयेत्सुरान् । साक्षिणः सन्तु मे देवा ब्रह्मेशानादयस्तथा ॥ मया गयां समासाद्य पितॄणां निष्कृतिः कृता आगतोऽस्मि गयां देव पितृकार्ये गदाधर । त्वमेव साक्षी भगवन्ननृणोऽहमृणत्रयात् सर्वस्थानेषु चैवं स्यात्पिण्डदानं तु नारद | प्रेतपर्वतमारभ्य कुर्यात्तीर्थेषु च क्रमात् तिलमिश्रांस्ततः सक्तून्निक्षिपेत्प्रेतपर्वते | : अपसव्येन देवर्षे दक्षिणाभिमुखेन च ये केचित्प्रेतरूपेण वर्तन्ते पितरो मम । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु सक्तुभिस्तिलमिश्रितैः आन्ब्रह्मस्तम्बपर्यंन्तं यत्किचित्सचराघरम् | मया दत्तेन तोयेन तृप्तिमायान्तु सर्वशः प्रेतत्वाच्च विमुक्ताः स्युः पितरस्तस्य नारद | प्रेतत्वं तस्य माहात्म्यात्कुले चापि न जायते ॥५६ ॥६० ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ चाहिये तीन बार सिचन करने के उपरान्त सब को प्रणाम करके पिण्डदान को विधि को समाप्त करना चाहिये |५६-५८॥ पितरों को विसर्जित कर आचमन करके साक्षी रूप में उपस्थित देवताओं को यह सुनाना चाहिये । ब्रह्मा, शिव प्रभृति देवगण ! आप लोग हमारे इस कार्य के साक्षी रहें कि मैं गया में आकर अपने पितरों के उद्धार का कार्य सम्पन्न कर चुका | देव ! गदाधर ! केवल पितृकार्य के लिये मै गया आया हुआ था, भगवन् ! आप हो इसके साक्षी है, मै अब अपने तीनों ऋणों से मुक्त हूँ |५९-६० । देवपि नारद जो ! प्रायः सभी तीर्थ स्थानों में पिण्डदान को यही विधि है, सर्व प्रथम प्रेत पर्वत पर आरम्भ कर क्रमानुसार सभी स्थानो में उक्त क्रम से श्राद्ध करना चाहिये । प्रेत पर्वत पर तिलमिश्रित सत्तू दक्षिणाभिमुख एवं अपसव्य होकर छोड़ना चाहिये |६१-६२। जो कोई हमारे पितरगण प्रेत रूप में कही विद्यमान हों, वे इस तिलमिश्रित सत्तु के दान से तृप्ति लाभ करें। ब्रह्मा से लेकर स्तम्व पर्यन्त इन चराचर जीव-योनियों में जो भी हमारे पितरगण हों, वे मेरे दिये इस जलदान से सर्वांशतः तृप्ति लाभ करें |६३-६४। नारद जी ! इस विधि से श्राद्ध करनेवाले प्राणियों के पितरगण निश्चय ही प्रेत योनि से छुटकारा पा जाते है । यही नहीं प्रत्युत उसके इस शुभ कर्म के महत्

  • नास्त्यघंमिदं क. पुस्तके ।

÷ नास्त्यर्घमिदं व पुस्तके |