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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५३६

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एकषष्टितमोऽध्यायः ऋषोणां ब्रह्मचर्येण गत्वाऽनृत्यं तु वै ततः । पितॄणां प्रजया चैन देवानामिज्यया तथा शतं वर्षसहस्राणि वर्मे वर्गालले स्थिताः । त्रयीं वार्ता दण्डनीति धर्मान्वर्णाश्रमांस्तथा ॥ स्थापयित्वाऽऽअनश्व स्वर्गाय दधिरे मतीः पूर्व देवेषु तेष्वेव स्वर्गाध प्रमुखेषु च । पूर्व देवास्ततस्ते वै स्थिता धर्मेण कृत्स्नशः मन्त्रन्तरे परावृत्ते स्थानान्युत्सृज्य सर्वशः । मन्त्रैः सहोर्ध्व गच्छन्ति सहर्लोकमनामयम् विनिवृत्तविकारास्ते मानसों सिद्धियास्थिताः । अवेक्ष्यमाणा वशिनस्तिष्ठन्त्याभूतसंप्लवस् ततस्तेषु व्यतीतेषु सर्वेष्वेतेषु सर्वदा | शून्येषु देवस्थानेषु त्रैलोक्ये तेषु सर्वशः || उपस्थिता इहैवान्ये देवा ये स्वर्गवासिनः ततस्ते तपसा युक्ता स्थानान्यापूरयन्ति । सत्येन ब्रह्मचर्येण श्रुतेन च समन्विताः सप्तर्षीणां मनोश्चैव देवानां पितृभिः सह । निधनानीह पूर्वेषामादिना च भविष्यताम् तेषामत्यन्त विच्छेद इह मन्वन्तरक्षयात् । एवं पूर्वानुपूर्वेण स्थितिरेषाऽनवस्थिता ॥ मन्वन्तरेषु सर्वेषु यावदाभूतसंप्लवम् एवं मन्वन्तरागां तु प्रतिसंधानलक्षणम् | अतीतानागतानां तु प्रोक्तं स्वायंभुवेन तु ५१५ ॥१६६ ॥१६७ ॥१६८ ॥१६६ ॥१७० ॥१७१ ॥१७२ ॥१७३ ॥ १७४ ॥१७५ पिनरो के ऋण से, और यज्ञ द्वारा देवनाओं के ऋण से मुक्त होते है | उन लोग ने इस प्रकार एक लाख वर्षं तक वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था में व्यवस्थित रह त्रयी, वार्ता, दण्डनीति, वर्णाश्रम धर्म आदि की प्रतिष्ठा कर तथा चारो आश्रमो की विधिवत् स्थापना कर स्वर्ग गमन के लिए विचार किया। १६४-१६७ । पूर्वकाल मे उन्ही प्रमुख देवताओ के स्वर्गलोक के लिए प्रस्थित हो जाने पर पहिले देवगण तदनन्तर ये लोग धर्म के साथ पूर्णत: सयुक्त हुए । मन्वन्तर के समाप्त हो जाने पर वे सब लोग अपना स्थान छोड़कर मंत्रों के साथ अनामय महर्लोक को प्रस्थित हो जाते है। विकार-विहीन मानसिक सिद्धियों से सम्पन्न, जितेन्द्रिय वे लोग इस प्रकार मह प्रलय पर्यन्त अवस्थित रहकर मन्वन्तर का परिवर्तन देखते है । तदनन्तर उन सभी देवताओं के विगत हो जाने पर त्रैलोक्य में सभी देवताओं के स्थान शून्य मे परिणत हो जाते तब उनमे अन्य जो स्वर्गवासी देवगण है वें उपस्थित होते है ।१६८-१७१। और अपने सत्य, ब्रह्मचर्य, शास्त्रज्ञान तथा तपस्या के बल पर उन शून्य स्थानों की पूर्ति करते है । सातो ऋषि, मनु, देवगण और पितरगण इनमे से पूर्वकाल मे जो हो चुके है, वे भी भविष्य में होनेवालो के साथ ही मृत्यु को प्राप्त करते है । उन सबो का अत्यन्त विच्छेद इस लोक में एक मन्वन्तर के व्यतीत होने पर घटित होता है । मन्वन्तरी में इस प्रकार पूर्व के मन्वन्तरो के समान प्रलयकाल पर्यन्त निश्चित परिवर्तन के साथ सृष्टि की स्थिति होती है। इस प्रकार व्यतीत एवं भविष्य मे आनेवाले मन्वन्तरों के प्रतिसंधान का लक्षण स्वायम्भुव ने बतलाया है ।१७२-१७५। बीते हुए मन्वन्तरों मे