सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं १.१७७

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विषयः योज्यताम्
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बर्हि - उदक[सम्पाद्यताम्]

ब्रह्म और बर्हि: -

इन्द्र और इन्दु के उक्त अभेदपद की प्राप्ति के लिए साधक को पहले बर्हि स्तीर्ण करनी पड़ती है। उस बर्हि को प्राचीन-बर्हि कहा जाता है, जिसको वस्तुतः पवमान सोम ही अपने ओज के द्वारा स्तीर्ण करता हुआ विभिन्न देवशक्तियों में गतिशील रहता है-
बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन् हरिः।
देवषु देव ईयते।। ऋ ९, ५, ४
इस प्राचीन बर्हिः को ‘सहस्रवीर’ भी कहते हैं, जिस पर आदित्यगण विराजमान होते हैं। इसका अभिप्राय है कि आनन्दमय कोश से जिस अनुपात में परब्रह्म के आनन्दरसरूपी सोम अथवा इन्दु का अवतरण होता है, उसी अनुपात में यह बर्हि स्तीर्ण होने लगती है। यह प्राची नामक कार्यज्ञान की दिशा की ओर उन्मुख होकर दक्षशील होती है, अतएव इसको ‘प्राचीन बर्हिः’ कहा जाता है। बर्हिः शब्द उद्यगानार्थक वृद्ध्यर्थक और उद्यमानार्थक बृह् धातु से निष्पन्न होने के कारण ऊपर की ओर वर्धमान अथवा गतिशील तत्व है। इसके उत्तरोत्तर स्तरों को सूचित करने वाला ‘ब्रह्माणि’ शब्द भी उसी बृह् धातु से निष्पन्न है। आन्तरिक ध्यानयज्ञ की प्रक्रिया के अन्तर्गत देवशक्तियों को आकर्षित करने वाली तथा शुद्धिकरण के फलस्वरूप उसको मेघरूप देनेवाली यह समस्त गतिविधि परमेश्वर इन्द्र के आह्वान के लिए की जाती है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र में संकेतित है-
अयं यज्ञो देवया अयं मियेध इमा ब्रह्माण्ययमिन्द्र सोमः।
स्तीर्णं बर्हिरातु शुक्र प्र याहि पिबा निषद्य विमुचा हरी इह।।
यह बर्हिः वस्तुतः साधक का अन्तकरण है। अतएव बर्हिः को अन्तरिक्ष नामों में भी सम्मिलित किया गया है। वही अन्तःकरण रूपी बर्हिः देवव्यचा कही जाती है, क्योंकि यही वह ऊर्ध्वगातु है, जो अध्वर नामक आन्तरिक यज्ञ में बनाया जाता है और जिसके परिणामस्वरूप देदीप्यमान रजःकणों का प्रारम्भ होने लगता है तथा हमारा ज्ञानाग्निरूपी होता मनोमय आकाश के केन्द्र में आसीन हो जाता है। बर्हिः के इसी स्वरूप के सम्बन्ध में साधक के प्राण परिबृहंण करने लगते हैं, तो उनको भी बृह् धातु से निष्पन्न बृहन्ता कहा जाता है । इसी प्रकार साधक का मनोमय कोश रूपी द्यौ तथा प्राणान्नमय रूपी पृथिवी की संयुक्त इकाई द्यावापृथिवी भी बृहती कही जाती है। अन्तःकरण रूपी बर्हिः का विस्तार मनीषी लोग वहां तक करते हैं, जहां तक वह बर्हि आनन्दरूपी घृत से सराबोर होकर घृतपृष्ठ कही जाती है और जहां ब्रह्म के अमृततत्व का साक्षात्कार हो जाता है। सम्भवतः इसी स्तर को वह बर्हि पद कहा जाता है, जिसके कारण इस शब्द की गणना पदनामों में की गई है। इसी बर्हि पर उस दैव्य जन को आसीन किया जाना साधना का लक्ष्य है, जिसे हम परमेश्वर इन्द्र अथवा परब्रह्म कह सकते हैं ।
बर्हि के स्तरण को ही, एक दृष्टि से अनावरण भी कहा जा सकता है, क्योंकि वस्तुतः बर्हि की यह बर्हण-प्रक्रिया अहंकार के प्रभाव में आवृत तथा बद्ध रहती है, जो कि साधना के फलस्वरूप अनावृत्त तथा मुक्त होकर स्तीर्ण होने लगती है, जिसके फलस्वरूप आपः भी मुक्त होकर अपने पद को ग्रहण करते हैं अर्थात् प्रवाहित होने लगते हैं । यहां यह भी स्मरणीय है कि इस बर्हि को त्रिधातु कहा जाता है, क्योंकि अहंकार के प्रभाव में वह केवल अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश की शक्तियों से ही सम्बन्ध रखती है और अहंकार से मुक्त होने पर वह विज्ञानमय कोश की ओर भी गतिशील होती है। इसी दृष्टि से, अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह आनन्दमय कोश रूपी दिव से और विज्ञानमय कोश रूपी अन्तरिक्ष से वरुण और इन्द्र को ले आयें और सब देवों को उक्त त्रिधातु पर आसीन करें । अन्तरिक्षरूपी बर्हि के सम्बन्ध से ही पवमान को बर्हिः कहा गया प्रतीत होता है । पवमान सोम तथा इन्द्र के प्रभाव से ही शुष्ण कुयव जैसी सहस्रों आसुरी शक्तियों का वर्धन (या बर्हण) रूक जाता है। अतः उस आसुरी शक्ति को रोकने के लिए निबर्हीः क्रिया का प्रयोग किया जाता है, जो उसी धातु से निष्पन्न है, जिससे कि बर्हिः।