महाभारतम्-08-कर्णपर्व-064
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-64-1x |
ततः सरथनागाश्वाः पाञ्चालाः पाण्डुसृञ्जयाः। सेनापतिं परीप्सन्तो रुरुधुस्तनयं तव।। | 8-64-1a 8-64-1b |
ततः प्रववृते युद्वं तावकानां परैः सह। घोरं प्राणभृतां काले भीमरूपं परन्तप।। | 8-64-2a 8-64-2b |
नकुलो वृषसेनं तु विद्ध्वा पञ्चभिरायसैः। पितुः समीपे तिष्ठन्तं त्रिभिरन्त्यैरविध्यत।। | 8-64-3a 8-64-3b |
नकुलं तु ततः शूरो वृषसेनो हसन्निव। नाराचेन सुतीक्ष्णेन विव्याध हृदये भृशम्'।। | 8-64-4a 8-64-4b |
सोऽतिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुकर्शन। शत्रुं विव्याध विंशत्या सूतं चैवास्य सप्तभिः।। | 8-64-5a 8-64-5b |
ततः शरसहस्रेण तावुभौ पुरुषर्षभौ। अन्योन्यमाच्छादयतां तवाभज्यत वाहिनी।। | 8-64-6a 8-64-6b |
स दृष्ट्वा प्रद्रुतां सेनां धार्तराष्ट्रस्य सूतजः। निवारयामास बलादनुपत्य विशाम्पते।। | 8-64-7a 8-64-7b |
`एतस्मिन्नन्तरे युद्धं कष्टमासीद्विशाम्पते'। निवृत्ते तु ततः सैन्ये नकुलः कौरवान्ययौ।। | 8-64-8a 8-64-8b |
कर्णपुत्रस्तु समरे हित्वा नकुलमेव तु। जुगोप चक्रं त्वरितो राधेयस्यैव मारिष।। | 8-64-9a 8-64-9b |
उलूकस्तु रणे क्रुद्धः सहदेवेन मारिष। `निवारितः शरशतैः क्रुद्धेन रणमूर्धनि।। | 8-64-10a 8-64-10b |
तस्याश्वांश्चतुरो हत्वा सहदेवः प्रतापवान्। सारथिं प्रेषयामास यमस्य सदनं प्रति।। | 8-64-11a 8-64-11b |
उलूकस्तु ततो यानादवप्लुत्य विशाम्पते। त्रिगर्तानां बलं तूर्णं जगाम पितृनन्दनः।। | 8-64-12a 8-64-12b |
सात्यकिः शकुनिं विद्ध्वा विंशत्या निशितैः शरैः। ध्वजं चिच्छेद भल्लेन सौबलस्य हसन्निव।। | 8-64-13a 8-64-13b |
सौबलस्तस्य समरे क्रुद्धो राजन्प्रतापवान्। विदार्य कवचं भूयो ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम्।। | 8-64-14a 8-64-14b |
तथैनं निशितैर्बाणैः सात्यकिः प्रत्यविध्यत। सारथिं च महाराज त्रिभिरेव समार्पयत्।। | 8-64-15a 8-64-15b |
अथास्य वाहांस्त्वरितः शरैर्नित्ये यमक्षयम्। ततोऽवप्लुत्य सहसा शकुनिर्भरतर्षभ।। | 8-64-16a 8-64-16b |
आरुरोह रथं तूर्णमुलूकस्य महात्मनः। अपोवाहाथ शीघ्रं स शैनेयाद्युद्धशालिनः।। | 8-64-17a 8-64-17b |
सात्यकिस्तु रण राजंस्तावकानामनीकिनीम्। अभिदुद्राव वेगेन ततोऽनीकमभज्वत।। | 8-64-18a 8-64-18b |
शैनेयशरसञ्छन्नं तव सैन्यं विशाम्पते। भेजे दशा दिशस्तूर्णं न्यपतच्च गतासुवत्।। | 8-64-19a 8-64-19b |
भीमसेनं तव सुतो वारयामास संयुगे।। | 8-64-20a |
तं तु भीमो मुहूर्तेन व्यश्वसूतरथध्वजम्। चक्रे लोकेश्वरं तत्र तेनातुष्यन्त वै जनाः।। | 8-64-21a 8-64-21b |
ततोऽपायान्नृपस्तस्माद्भीमसेनभयार्दितः। कुरुसैन्यं ततः सर्वं भीमसेनमुपाद्रवत्। तत्र नादो महानासीद्धीमसेनं जिघांसताम्।। | 8-64-22a 8-64-22b 8-64-22c |
युधामन्युः कृपं विद्ध्वा धनुरस्याशु चिच्छदे। अथान्यद्धनुरादाय कृपः शस्त्रभृतां वरः। युधामन्योर्ध्वजं सूतं छत्रं चापातयत्क्षितौ।। | 8-64-23a 8-64-23b 8-64-23c |
ततोऽपायाद्रथेनैव युधामन्युर्महारथः।। | 8-64-24a |
उत्तमौजाश्च हार्दिक्यं भीमं भीमपराक्रमम्। छादयामास सहसा मेघो वृष्ट्येव पर्वतम्।। | 8-64-25a 8-64-25b |
तद्युद्धमासीत्सुमहद्धोररूपं परन्तप। तादृशं न मया युद्धं दृष्टपूर्वं विशाम्पते।। | 8-64-26a 8-64-26b |
कृतवर्मा ततो राजन्नुत्तमौजसमाहवे। हृदि विव्याध सहसा रथोपस्थ उपाविशत्।। | 8-64-27a 8-64-27b |
सारथिस्तमपोवाह रथेन रथिनां वरम्। ततस्तु सात्वतो राजन्पाण्डुसैन्यमभिद्रवत्।। | 8-64-28a 8-64-28b |
[दुःशासनः सौबलश्च गजानीकेन पाण्डवम्। महता परिवार्यैव क्षुद्रकैरभ्यताडयत्।। | 8-64-29a 8-64-29b |
ततो भीमः शरशतैर्दुर्योधनममर्षणम्। विमुखीकृत्य तरसा गजानीकमुपाद्रवत्।। | 8-64-30a 8-64-30b |
तमापतन्तं सहसा गजानीकं वृकोदरः। दृष्ट्वैव सुभृशं क्रुद्धो दिव्यमस्त्रमुदैरयत्।। | 8-64-31a 8-64-31b |
गजैर्गजानभ्यहनद्वज्रेणेन्द्र इवासुरान्।। | 8-64-32a |
ततोऽन्तरिक्षं बाणौघैः शलभैरिव पादपम्। छादयामास समरे गजान्निघ्नन्वृकोदरः।। | 8-64-33a 8-64-33b |
ततः कुञ्जरयूथानि समेतानि सहस्रशः। व्यधमत्तरसा भीमो मेघसङ्घानिवानिलः।। | 8-64-34a 8-64-34b |
सुवर्णजालापिहिता मणिजालैश्च कुञ्जराः। रेजुरभ्यधिकं संख्ये विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः।। | 8-64-35a 8-64-35b |
ते वध्यमाना भीमेन गजा राजन्विदुद्रुवुः। केचिद्विभिन्नहृदयाः कुञ्जरा न्यपतन्भुवि।। | 8-64-36a 8-64-36b |
पतितैर्निपतद्भिश्च गजैर्हेमविभूषितैः। अशोभत मही तत्र विशीर्णैरिव पर्वतैः।। | 8-64-37a 8-64-37b |
दीप्ताभै रत्नवद्भिश्च पतितैर्गजयोधिभिः। रराज भूमिः पतितैः क्षीणपुण्यैरिव ग्रहैः।। | 8-64-38a 8-64-38b |
ततो भिन्नकटा नागा भिन्नकुम्भकरास्तथा। दुद्रुवुः शतशः संख्ये भीमसेनशराहताः।। | 8-64-39a 8-64-39b |
केचिद्वमन्तो रुधिरं भयार्ताः पर्वतोपमाः। व्यद्रवञ्छरविद्धाङ्गा धातुचित्रा इवाचलाः।। | 8-64-40a 8-64-40b |
महाभुजगसङ्काशौ चन्दनागुरुरूषितौ। अपश्यं भीमसेनस्य धनुर्विक्षिपतो भुजौ।। | 8-64-41a 8-64-41b |
तस्य ज्यातलनिर्घोषं श्रुत्वाशनिसमस्वनम्। विमुञ्चन्तः शकृन्मूत्रं गजाः प्रादुद्रुवुर्भृशम्।। | 8-64-42a 8-64-42b |
भीमसेनस्य तत्कर्म राजन्नेकस्य धीमतः। निघ्नतः सर्वभूतानि रुद्रस्येव च निर्बभौ।।] | 8-64-43a 8-64-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे चतुःषष्टितमोऽध्यायः।। 64 ।। |
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