महाभारतम्-02-सभापर्व-057

विकिस्रोतः तः
← सभापर्व-056 महाभारतम्
द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-057
वेदव्यासः
सभापर्व-058 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103

द्वारकावर्णनम्।। 1।। रुक्मिणीसत्यभामादिगृहवर्णनम्।।2।। कृष्णेन स्वर्गादानीतस्व पारिजातस्य प्रतिष्ठापनमुद्यान वर्णनं च।। 3।।

तां पुरी द्वारकीं दृष्ट्वा विभुर्नारायणो हरिः।
हृष्टः सर्वार्थसम्पन्नः प्रवेष्टुमुपचक्रमे।।
2-57-1a
2-57-1b
सोऽपश्यद्वृक्षषण्डांश्च रम्यान्नानाजनान्वहून्।
समन्ततो द्वारवत्यां नानापुष्पफलान्वितान्।।
2-57-2a
2-57-2b
अर्कचन्द्रप्रतीकाशैर्मेरुकूटनिभैर्गृहैः।
द्वारकामावृतां रम्यां सुकृतां विश्वकर्मणा।।
2-57-3a
2-57-3b
पद्मषण्डाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभिः।
गङ्गासिन्धुप्रकाशाभिः परिघाभिरलङ्कृताम्।।
2-57-4a
2-57-4b
प्राकारेणार्कवर्णेन पाण्डरेण विराजिताम्।
वियन्मूर्ध्नि निविष्टेन द्यामिवाभ्रपरिच्छदाम्।।
2-57-5a
2-57-5b
नन्दनप्रतिमैश्वापि मिश्रकप्रतिमैर्वनैः।
तत्र सा विहिता साक्षान्नगरी विश्वकर्मणा।।
2-57-6a
2-57-6b
काञ्चनैर्मणिसोपानैरुपेता जनहर्षिणी।
गीतघोषमहाघोषैः प्रसादप्रवरैः शुभा।।
2-57-7a
2-57-7b
तस्मिन्पुरवारश्रेष्ठे दाशार्हाणां यशस्विनाम्।
नेश्मानि जहृषे दृष्ट्वा भगवान्पाकशासनः।।
2-57-8a
2-57-8b
समुच्छ्रितपताकानि पारिप्लवनिभानि च।
काञ्चनाभानि भाखन्ति मेरुकूटनिभानि च।।
2-57-9a
2-57-9b
सुधापाण्डरशृङ्गैश्च शातकुम्भपरिच्छदैः।
रत्नसानुमहाशृङ्गैः सर्वरत्नसमन्वितैः?
2-57-10a
2-57-10b
सहर्म्यैः सार्धचन्द्रैश्च सनिर्यूहैः सपञ्ज्अरैः।
सयन्त्रगृहसंबाधैः सधातुभिरिवाद्रिभिः।।
2-57-11a
2-57-11b
मणिकाञ्चनभ्ॐऐश्च सुधामृष्टतलैस्तथा।
जाम्बूनदमयद्वारैर्वैडूर्यविकृतार्गलैः।।
2-57-12a
2-57-12b
सर्वर्तुसुखसंस्यर्शैर्महाधनपरिच्छदैः।
रम्यसानुगृहैः शृङ्गैर्विचित्रैरिव पर्वतैः।।
2-57-13a
2-57-13b
पञ्चवर्णसवर्णैश्च पुष्पवृष्टिसमप्रभैः।
तुल्यैः पर्जन्यनिर्घोषैर्ह्रादैर्भोगवती यथा।।
2-57-14a
2-57-14b
कृष्णध्वजोपवाह्यैश्च दाशार्हायुधरोहितैः।
वृष्णिवीरमयूरैश्च स्त्रीसहस्रप्रजाकुलैः।।
2-57-15a
2-57-15b
वासुदेवैन्द्रपर्जन्यैर्गृहमेघैरलङ्कृता।
ददृशे द्वारकाऽतीव मेघैर्द्यैरिव संवृता।।
2-57-16a
2-57-16b
साक्षाद्भगवतो वेश्म विहितं विश्वकर्मणा।
ददृशुर्वासुदेवस्य चतुर्योजनमायतम्।।
2-57-17a
2-57-17b
तावदेव सुविस्तीर्णं सुसम्पूर्णं महाधनैः।
प्रासादवरसम्पन्नं युक्तं जगति पर्वतैः।।
2-57-18a
2-57-18b
यं चकार महाभागस्त्वष्टा वासवचोदितः।
प्रासादं हेमनाभस्य सर्वतो योजनायतम्।।
2-57-19a
2-57-19b
मेरोरिव गिरेः शृङ्गमुच्छ्रितं काञ्चनालयम्।
रुक्मिण्याः प्रवरो वासो निर्मितः सुमहात्मना।।
2-57-20a
2-57-20b
सत्यभामा पुनर्वेश्म सदा वसति पाण्डरम्।
विचित्रमणिसोपानं यं विदुः शीतवानिति।।
2-57-21a
2-57-21b
विमलादित्यवर्णाभिः पताकाभिरलङ्कृतम्।
व्यक्तबद्धं यथोद्देशे चतुर्दशमहाध्वजम्।।
2-57-22a
2-57-22b
सर्वप्रासादमुख्योऽत्र जाम्बवत्या विभूषितः।
प्रभाया जृम्भणैश्चित्रैस्त्रैलोक्यमिव भासयन्।।
2-57-23a
2-57-23b
यस्तु पाण्डरवर्णाभस्तयोरन्तरमाश्रितः।
विश्वकर्माकरोदेनं कैलासशिखरोपमम्।।
2-57-24a
2-57-24b
जाम्बूनदप्रदीप्ताग्रः प्रदीप्तज्वलनोपमः।
सागरप्रतिमोऽतिष्ठन्मेरुरित्यभिविश्रुतः।।
2-57-25a
2-57-25b
तस्मिन्गान्धारराजस्य दुहिता कुलशालिनी।
सुकेशी नाम विख्याता केशवेन निवेशिता।।
2-57-26a
2-57-26b
पद्मकूट इति ख्यातः पद्मवर्णो महाप्रभः।
सुप्रभाया महाबाहो वासः स परमोच्छ्रितः।।
2-57-27a
2-57-27b
यस्तु सूर्यप्रभो नाम प्रासादवर उच्यते।
लक्षणायाः कुरुश्रेष्ठ स दत्तः शार्ङ्गधन्वना।।
2-57-28a
2-57-28b
वैडूर्यवरवर्णाभः प्रासादो हरितप्रभः।
श्वेतजाला हि यत्रैव यत्रैव च निवेशिता।।
2-57-29a
2-57-29b
यं विदुः सर्वभूतानि हरिरित्येव भारत।
सुमित्रविजयावासो देवर्षिगणपूजितः।।
2-57-30a
2-57-30b
महिष्या वासुदेवस्य भूषणं सर्ववेश्मनाम्।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र विहितः सर्वशिल्पिभिः।।
2-57-31a
2-57-31b
महिष्या वासुदेवस्य केतुमानिति विश्रुतः।
प्रसादो विरजो नाम विरजस्को महात्मनः।।
2-57-32a
2-57-32b
उपस्थानगृहं तात केशवस्य महात्मनः।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र यं त्वष्टा व्यदधात्स्वयम्।।
2-57-33a
2-57-33b
योजनायतविष्कम्भं सर्वरत्नमयं विभोः।
तेषां तु विहिताः सर्वे रुक्मदण्डाः पताकिनः।।
2-57-34a
2-57-34b
सदने वासुदेवस्य मार्गसञ्जनना ध्वजाः।
घण्टाजालानि तत्रैव सर्वेषां निवेशने।।
2-57-35a
2-57-35b
आहृत्य यदुसिंहेन वैजयन्तच्छलो महात्।
हंसकूटस्य यच्छ्रङ्गमिन्द्रद्युम्नसरो महत्।।
2-57-36a
2-57-36b
षष्टितालसमुत्सेधमर्धयोजनविस्तृतम्।
सकिन्नरमहानादं तदप्यमिततेजसः।।
2-57-37a
2-57-37b
पश्यतां सर्वभूतानां त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
आदित्यपथगं यत्तन्मेरोः शिखरमुत्तमम्।।
2-57-38a
2-57-38b
जाम्बूनदमयं दिव्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
तदप्युत्पाट्य कुच्छ्रेण स्वं निवेशनमाहृतम्।।
2-57-39a
2-57-39b
भ्राजमानं पुरा तत्र सर्वौषधिविदीपितम्।
यमिन्द्रभवनाच्छौरिराजहार परन्तपः।।
2-57-40a
2-57-40b
पारिजातः स तत्रैव केशवेन निवेशितः।
लेपहस्तशतैर्जुष्टो विमानैश्च हिरण्मयैः।।
2-57-41a
2-57-41b
विहिता वासुदेवेन तत्रैव च महाद्रुमाः।
पद्माकुलजलोपेता रक्तसौगन्धिकोत्पलाः।।
2-57-42a
2-57-42b
मणिमौक्तिकवालूकाः पुष्करिण्यः सरांसि च।
तासां परमकूलि शोभयन्ति महाद्रुमाः।।
2-57-43a
2-57-43b
सालतालाश्वकर्णाश्च शतशाखाश्च रोहिणः।
भल्लातककपित्थाश्च इन्द्रवृक्षाश्च चम्पकाः।।
2-57-44a
2-57-44b
खादिरा मृतकाश्चैव समन्तात्परिरोपिताः।
ये च हैमवता वृक्षा ये च नन्दनजास्तथा।।
2-57-45a
2-57-45b
आहृत्य यदुसिंहेन तेऽपि तत्र निवेशिताः।
रत्नपीतारुणप्रख्याः सितपुष्पाश्च पादपाः।।
2-57-46a
2-57-46b
सर्वर्तुफलपूर्णोस्ते ते च काननसिन्धुषु।
सहस्रपत्रपद्माश्च मन्दराश्च सहस्रशः।।
2-57-47a
2-57-47b
अशोकाः कर्णिकाराश्च तिलका नाग मल्लिकाः।
कुरका नागपुष्पाश्च चम्पकास्तृणपुल्लिकाः।।
2-57-48a
2-57-48b
सप्तवर्णाः कबन्धाश्च नीपाः कुरवकास्तथा।
केतकाः केसराश्चैव हिनतालतलताटकाः।।
2-57-49a
2-57-49b
तालाः प्रलम्बा वकुलाः पिण्डिका बीजपूरकाः।
द्रुतामलकखर्जूरा महिता जम्बुकास्तथा।।
2-57-50a
2-57-50b
आम्राः पनसवृक्षाश्च चम्पकास्तिलतिन्दुकाः।
लिकुचामृताश्चैव क्षीरिका कर्णिका तथा।।
2-57-51a
2-57-51b
नालिकेरेङ्गुदाश्चैव उत्क्रोशकवनानि च।
कदली जातमल्ली च पाटली कुमुदोत्पलाः।।
2-57-52a
2-57-52b
नीलोत्पलकपूर्णाश्च वाप्यः कूपाः सहस्रशः।
फुल्लाशाककपित्थाश्च तैस्तीर्त्वा बन्धुजीवकाः।।
2-57-53a
2-57-53b
प्रियालाशोकवादिर्याः प्राचीनाश्चापि सर्वशः।
प्रियङ्गुबदरीभिश्च यवैः स्यन्दनचन्दनैः।।
2-57-54a
2-57-54b
शचीपीलुपलाश्चैश्च पलाशवधपिप्लैः।
उदुम्बरैश्च बिल्वैश्च पालाशैः पारिभद्रकैः।।
2-57-55a
2-57-55b
इन्द्रवृक्षार्जुनैश्चैव अश्वत्थैश्चिरबिल्वकैः।
भौमगञ्जनवृक्षैश्च भल्लाभैरश्वसाह्वयैः।।
2-57-56a
2-57-56b
सज्जैस्ताम्बूलवल्लीभिर्लवङ्गैः क्रमुकैस्तथा।
वंशैश्च विविधैस्तत्र समन्तात्परिरोपितैः।।
2-57-57a
2-57-57b
ये च नन्दनजा वृक्षा ये च चैत्ररथे वने।
सर्वे ते यदुनाथेन समन्तात्परिरोपिताः।।
2-57-58a
2-57-58b
समाहिता महानद्यः पीतलोहितवालुकाः।
तस्मिन्गृहवरे रम्ये मणिशक्रसवालुकाः।।
2-57-59a
2-57-59b
मत्तबर्हिणनादाश्च कोकिलाश्च मदावहाः।
बभूवुः परमोपेताः सर्वे जगति पर्वताः।।
2-57-60a
2-57-60b
तत्रैव गजयूथानि तत्र गोमहिषास्तथा।
निवासाश्च कृतास्तत्र वराहा मृगपक्षिणाम्।।
2-57-61a
2-57-61b
विश्वकर्मकृतः शैलः प्राकारस्तत्र वेश्मनि।
व्यक्तकिष्कुशतोद्यामः सुधारससमप्रभः।।
2-57-62a
2-57-62b
तेन ते च महाशैलाः सरितश्च सरांसि च।
परिक्षिप्तानि वै तस्य वनान्युपवनानि च।।
2-57-63a
2-57-63b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वण
अर्घाहरणपर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्यायः।। 57।।
सभापर्व-056 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-058


तां पुरी द्वारकां दृष्ट्वा विभुर्नारायणो हरिः।
हृष्टः सर्वार्थसम्पन्नः प्रवेष्टुमुपचक्रमे॥ 2-57-1
सोऽपश्यद्वृक्षषण्डांश्च रम्यान्नानाजनान्बहून्।
समन्ततो द्वारवत्यां नानापुष्पफलान्वितान्॥ 2-57-2
अर्कचन्द्रप्रतीकाशैर्मेरुकूटनिभैर्गृहैः।
द्वारकामावृतां रम्यां सुकृतां विश्वकर्मणा॥ 2-57-3
पद्मषण्डाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभिः।
गङ्गासिन्धुप्रकाशाभिः परिघाभिरलङ्कृताम्॥ 2-57-4
प्राकारेणार्कवर्णेन पाण्डरेण विराजिताम्।
वियन्मूर्ध्नि निविष्टेन द्यामिवाभ्रपरिच्छदाम्॥ 2-57-5
नन्दनप्रतिमैश्वापि मिश्रकप्रतिमैर्वनैः।
तत्र सा विहिता साक्षान्नगरी विश्वकर्मणा॥ 2-57-6
काञ्चनैर्मणिसोपानैरुपेता जनहर्षिणी।
गीतघोषमहाघोषैः प्रासादप्रवरैः शुभा॥ 2-57-7
तस्मिन्पुरवरेश्रेष्ठे दाशार्हाणां यशस्विनाम्।
वेश्मानि जहृषे दृष्ट्वा भगवान्पाकशासनः॥ 2-57-8
समुच्छ्रितपताकानि पारिप्लवनिभानि च।
काञ्चनाभानि भाखन्ति मेरुकूटनिभानि च॥ 2-57-9
सुधापाण्डरशृङ्गैश्च शातकुम्भपरिच्छदैः।
रत्नसानुमहाशृङ्गैः सर्वरत्नसमन्वितैः? 2-57-10
सहर्म्यैः सार्धचन्द्रैश्च सनिर्यूहैः सपञ्जरैः।
सयन्त्रगृहसंबाधैः सधातुभिरिवाद्रिभिः॥ 2-57-11
मणिकाञ्चनभोमेश्च सुधामृष्टतलैस्तथा।
जाम्बूनदमयद्वारैर्वैडूर्यविकृतार्गलैः॥ 2-57-11
सर्वर्तुसुखसंस्पर्शैर्महाधनपरिच्छदैः।
रम्यसानुगृहैः शृङ्गैर्विचित्रैरिव पर्वतैः॥ 2-57-13
पञ्चवर्णसवर्णैश्च पुष्पवृष्टिसमप्रभैः।
तुल्यैः पर्जन्यनिर्घोषैर्ह्रादैर्भोगवती यथा॥ 2-57-14
कृष्णध्वजोपवाह्यैश्च दाशार्हायुधरोहितैः।
वृष्णिवीरमयूरैश्च स्त्रीसहस्रप्रजाकुलैः॥ 2-57-15
वासुदेवैन्द्रपर्जन्यैर्गृहमेघैरलङ्कृता।
ददृशे द्वारकाऽतीव मेघैर्द्यौरिव संवृता॥ 2-57-16
साक्षाद्भगवतो वेश्म विहितं विश्वकर्मणा।
ददृशुर्वासुदेवस्य चतुर्योजनमायतम्॥ 2-57-17
तावदेव सुविस्तीर्णं सुसम्पूर्णं महाधनैः।
प्रासादवरसम्पन्नं युक्तं जगति पर्वतैः॥ 2-57-18
यं चकार महाभागस्त्वष्टा वासवचोदितः।
प्रासादं हेमनाभस्य सर्वतो योजनायतम्॥ 2-57-19
मेरोरिव गिरेः शृङ्गमुच्छ्रितं काञ्चनालयम्।
रुक्मिण्याः प्रवरो वासो निर्मितः सुमहात्मना॥ 2-57-20
सत्यभामा पुनर्वेश्म सदा वसति पाण्डरम्।
विचित्रमणिसोपानं यं विदुः शीतवानिति॥ 2-57-21
विमलादित्यवर्णाभिः पताकाभिरलङ्कृतम्।
व्यक्तबद्धं यथोद्देशे चतुर्दशमहाध्वजम्॥ 2-57-22
सर्वप्रासादमुख्योऽत्र जाम्बवत्या विभूषितः।
प्रभाया जृम्भणैश्चित्रैस्त्रैलोक्यमिव भासयन्॥ 2-57-23
यस्तु पाण्डरवर्णाभस्तयोरन्तरमाश्रितः।
विश्वकर्माकरोदेनं कैलासशिखरोपमम्॥ 2-57-24
जाम्बूनदप्रदीप्ताग्रः प्रदीप्तज्वलनोपमः।
सागरप्रतिमोऽतिष्ठन्मेरुरित्यभिविश्रुतः॥ 2-57-25
तस्मिन्गान्धारराजस्य दुहिता कुलशालिनी।
सुकेशी नाम विख्याता केशवेन निवेशिता॥ 2-57-26
पद्मकूट इति ख्यातः पद्मवर्णो महाप्रभः।
सुप्रभाया महाबाहो वासः स परमोच्छ्रितः॥ 2-57-27
यस्तु सूर्यप्रभो नाम प्रासादवर उच्यते।
लक्षणायाः कुरुश्रेष्ठ स दत्तः शार्ङ्गधन्वना॥ 2-57-28
वैडूर्यवरवर्णाभः प्रासादो हरितप्रभः।
श्वेतजाला हि यत्रैव यत्रैव च निवेशिता॥ 2-57-29
यं विदुः सर्वभूतानि हरिरित्येव भारत।
सुमित्रविजयावासो देवर्षिगणपूजितः॥ 2-57-30
वासः स मित्रविन्दाया देवर्षिगणपूजितः।। (पाठभेदः)
महिष्या वासुदेवस्य भूषणं सर्ववेश्मनाम्।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र विहितः सर्वशिल्पिभिः॥ 2-57-31
अतीव रम्यः सोप्यत्र प्रहसन्निव तिष्ठति।
सुदत्तायाः सुवासस्तु पूजितः सर्वशिल्पिभिः।।(पाठभेदः)
महिष्या वासुदेवस्य केतुमानिति विश्रुतः।
प्रासादो विरजो नाम विरजस्को महात्मनः॥ 2-57-32
उपस्थानगृहं तात केशवस्य महात्मनः।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र यं त्वष्टा व्यदधात्स्वयम्॥
योजनायतविष्कम्भं सर्वरत्नमयं विभोः।
तेषां तु विहिताः सर्वे रुक्मदण्डाः पताकिनः॥ 2-57-34
सदने वासुदेवस्य मार्गसञ्जनना ध्वजाः।
घण्टाजालानि तत्रैव सर्वेषां निवेशने॥ 2-57-35
आहृत्य यदुसिंहेन वैजयन्त्यचलो महान्।
हंसकूटस्य यच्छृङ्गमिन्द्रद्युम्नसरो महत्॥ 2-57-36
षष्टितालसमुत्सेधमर्धयोजनविस्तृतम्।
सकिन्नरमहानादं तदप्यमिततेजसः॥ 2-57-37
पश्यतां सर्वभूतानां त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
आदित्यपथगं यत्तन्मेरोः शिखरमुत्तमम्॥ 2-57-38
जाम्बूनदमयं दिव्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
तदप्युत्पाट्य कुच्छ्रेण स्वं निवेशनमाहृतम्॥ 2-57-39
भ्राजमानं पुरा तत्र सर्वौषधिविदीपितम्।
यमिन्द्रभवनाच्छौरिराजहार परन्तपः॥ 2-57-40
पारिजातः स तत्रैव केशवेन निवेशितः।
लेपहस्तशतैर्जुष्टो विमानैश्च हिरण्मयैः॥ 2-57-41
विहिता वासुदेवेन तत्रैव च महाद्रुमाः।
पद्माकुलजलोपेता रक्तसौगन्धिकोत्पलाः॥ 2-57-42
मणिमौक्तिकवालूकाः पुष्करिण्यः सरांसि च।
तासां परमकूलानि शोभयन्ति महाद्रुमाः॥ 2-57-43
सालतालाश्वकर्णाश्च शतशाखाश्च रोहिणः।
भल्लातककपित्थाश्च इन्द्रवृक्षाश्च चम्पकाः॥ 2-57-44
खादिरा मृतकाश्चैव समन्तात्परिरोपिताः।
ये च हैमवता वृक्षा ये च नन्दनजास्तथा॥ 2-57-45
आहृत्य यदुसिंहेन तेऽपि तत्र निवेशिताः।
रत्नपीतारुणप्रख्याः सितपुष्पाश्च पादपाः॥ 2-57-46
सर्वर्तुफलपूर्णास्ते ते च काननसिन्धुषु।
सहस्रपत्रपद्माश्च मन्दराश्च सहस्रशः॥2-57-47
अशोकाः कर्णिकाराश्च तिलका नाग मल्लिकाः।
कुरका नागपुष्पाश्च चम्पकास्तृणपुल्लिकाः॥ 2-57-48
सप्तवर्णाः कबन्धाश्च नीपाः कुरवकास्तथा।
केतकाः केसराश्चैव हिनतालतलताटकाः॥ 2-57-49
तालाः प्रलम्बा वकुलाः पिण्डिका बीजपूरकाः।
द्रुतामलकखर्जूरा महिता जम्बुकास्तथा॥ 2-57-50
आम्राः पनसवृक्षाश्च चम्पकास्तिलतिन्दुकाः।
लिकुचामृताश्चैव क्षीरिका कर्णिका तथा॥ 2-57-51
नालिकेरेङ्गुदाश्चैव उत्क्रोशकवनानि च।
कदली जातमल्ली च पाटली कुमुदोत्पलाः॥ 2-57-52
नीलोत्पलकपूर्णाश्च वाप्यः कूपाः सहस्रशः।
फुल्लाशाककपित्थाश्च तैस्तीर्त्वा बन्धुजीवकाः॥ 2-57-53
प्रियालाशोकवादिर्याः प्राचीनाश्चापि सर्वशः।
प्रियङ्गुबदरीभिश्च यवैः स्यन्दनचन्दनैः॥ 2-57-54
शचीपीलुपलाश्चैश्च पलाशवधपिप्लैः।
उदुम्बरैश्च बिल्वैश्च पालाशैः पारिभद्रकैः॥ 2-57-55
इन्द्रवृक्षार्जुनैश्चैव अश्वत्थैश्चिरबिल्वकैः।
भौमगञ्जनवृक्षैश्च भल्लाभैरश्वसाह्वयैः॥ 2-57-56
सज्जैस्ताम्बूलवल्लीभिर्लवङ्गैः क्रमुकैस्तथा।
वंशैश्च विविधैस्तत्र समन्तात्परिरोपितैः॥ 2-57-57
ये च नन्दनजा वृक्षा ये च चैत्ररथे वने।
सर्वे ते यदुनाथेन समन्तात्परिरोपिताः॥ 2-57-58
समाहिता महानद्यः पीतलोहितवालुकाः।
तस्मिन्गृहवरे रम्ये मणिशक्रसवालुकाः॥ 2-57-59
मत्तबर्हिणनादाश्च कोकिलाश्च मदावहाः।
बभूवुः परमोपेताः सर्वे जगति पर्वताः॥ 2-57-60
तत्रैव गजयूथानि तत्र गोमहिषास्तथा।
निवासाश्च कृतास्तत्र वराहा मृगपक्षिणाम्॥ 2-57-61
विश्वकर्मकृतः शैलः प्राकारस्तत्र वेश्मनि।
व्यक्तकिष्कुशतोद्यामः सुधारससमप्रभः॥ 2-57-62
तेन ते च महाशैलाः सरितश्च सरांसि च।
परिक्षिप्तानि वै तस्य वनान्युपवनानि च॥ ॥ 2-57-63

"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=महाभारतम्-02-सभापर्व-057&oldid=62320" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्