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पृष्ठम्:AshtavakraGitaSanskritHindi.djvu/१५

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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०

पदच्छेदः ।
न, पृथिवी, न, जलम्, अग्निः , न, वायुः, द्यौः, न, वा,
भवान्, एषाम्, साक्षिणम्, आत्मानम्, चिद्रूपम्, विद्धि मूक्तये ।।
अन्वयः ।
___ शब्दार्थ । । अन्वयः ।
शब्दार्थ ।
भवान्तू
वापर
न पृथिवी-न पृथिवी है
मुक्तये-मुक्ति के लिये
न जलम्-न जल है
एषाम् इन सबका
साक्षिणम् साक्षी
न अग्निः न अग्नि है
चिद्रूपम्-चैतन्यरूप
न वायुःन वायु है
आत्मानम अपने को
न द्यौः न आकाश है
विद्धि-जान ॥
भावार्थ।
. दूसरा प्रश्न राजा का यह था कि पुरुष आत्म-ज्ञान को
कैसे प्राप्त होता है अर्थात् ज्ञान का स्वरूप क्या है ?
इसके उत्तर में ऋषिजी कहते हैं कि अनादि काल से
देहादिकों के साथ जो आत्मा का तादात्म्य-अध्यास हो रहा
है, उस अध्यास से ही पुरुष देह को आत्मा मानता है, और
इसी से जन्म-मरण-रूपी संसार-चक्र में पुन:-पुनः भ्रमण
करता रहता है। उस अध्यास का कारण अज्ञान है। उस
अज्ञान की निवृत्ति आत्म-ज्ञान करके होती है, और अज्ञान
की निवृत्ति से अध्यास की भी निवृत्ति होती है । इसी वास्ते
ऋषिजी प्रथम कार्य के सहित कारण की निवृत्ति का हेतु जो
आत्म-ज्ञान है, उसी को कहते हैं-
हे राजन् ! तुम पृथिवी नहीं हो, और न तुम जल-रूप
हो, न अग्नि-रूप हो, न वायु-रूप हो और न आकाश-रूप हो।
अर्थात् इन पाँचों तत्त्वों में से कोई भी तत्त्व तुम्हारा स्वरूप नहीं