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पृष्ठम्:AshtavakraGitaSanskritHindi.djvu/१३

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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०

है । देखिए-वर्ष के बारहों महीनों में नंगे रहने वालों के
शरीर को कष्ट होता है । सरदी के मौसम में सरदी के मारे
उनके होश बिगड़ते हैं और उनके हृदय में विचार उत्पन्न भी
नहीं हो सकता है । एवं गरमी और बरसात में मच्छर काट-
काट खाते हैं, अतः सदैव उनकी वत्ति दुःखाकार बनी रहती
है, विचार का गन्धमात्र भी नहीं रहता है । तथा 'श्रुति' से
भी विरोध आता है-
आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः।
किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् ॥१॥
यदि विद्वान् ने आत्मा को जान लिया कि यह आत्मा
ब्रह्म मैं ही हूँ, तब किसकी इच्छा करता हुआ और किस
कामना के लिये शरीर को तपावेगा, किंतु कदापि नहीं
तपावेगा। और 'गीता' में भी भगवान् ने इसको तामसी तप
लिखा है । इसी से साबित होता है कि नंगे रहनेवाले का
नाम वैराग्यवान् नहीं है, और नंगे रहने का नाम वैराग्य
नहीं है, किंतु केवल मूरों को पशु बनाने के वास्ते नंगा
रहना है । एवं सकामी इस तरह के व्यवहार को करता है,
निष्कामी नहीं करता है । तथा जड़भरतादिकों को अपने
पूर्वजन्म का वृत्तान्त याद था।
एक मृगी के बच्चे के साथ स्नेह करने से, उनको मृग
के तीन जन्म लेने पड़े थे, इसी वास्ते वह संगदोष से डरते
हुए असंग होकर रहते थे।
पंचदशी में लिखा है-
नह्याहारादि संत्यज्य भारतादिः स्थितः क्वचित् ।
काष्ठपाषाणवत् किन्तु संगभीत्या उदास्यते ॥२॥