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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९०

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( म्यम ) पृन्य को ( बुद्ध: ) सुपुमि मेजागकर (कथं स्मरसि) स्वाराज्य सिद्धि ‘म में मृग्य में माया था कुछ भी नहीं जानता था, इस प्रकार म्प्र में ता, कर श्राज्ञान का, अपना तथा तत्कालीन सुख क: म्: ; तुझको नहीं बन सकता, क्योंकि तेरा श्रात्मा जड़ नं मे मनं मृपुमि में कुछ भी अनुभव नहीं किया है और म् iन अनुभूत की ही होती है ! ( असाक्षी) जड़ होने से ही दन्द्रिय आदिको के विना देखने के लिये जो असमर्थ हैं ऐसा तू ( श्रय श्रयं ) यह घट है यह घट है ( इति अनेक संख्यानि विज्ञाना,ि ) इस प्रकार के विज्ञान ( कंन ) किस से ( वेत्सि) ज्ञानना ४ ? कोकि (विरं श्रद्राक्षम् इति) बहुत काल तक इस ट का मैं दम्यना था, इम्म प्रकार तू कहता है । भावार्थ यह है क्रम से उत्पन्न और विनाश हुए ज्ञानों का समुदाय अममंभव होने में उन उत्पन्न श्रौर नष्ट झानों का फिर ज्ञान होना अम्मंभव है और तुम्हारा अनुव्यवसाय ख्ध ज्ञान भी श्रारमाश्रय अन्यान्याश्रय आदि दोपों से दृपित है । इसलिये मुपुॉम के अज्ञान श्रीर धारात्मक ज्ञानादिकों के साक्षी रूप, नित्य

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धियश्च नम्मान् । द्रष्टाऽन्योऽस्त्यविपरिलुप्त दृक सतत्वा नि:मंगो विहरतेि यः पुर त्रयेऽपि।। ४२ इम प्रकार द्वैत मतों का निरास करकं अब श्रुति के तात्पर्य