पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/४३

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प्रकरणं १ श्लो० ३

इन्द्रिय, इंच्छा, प्रयत्नादिक गुणों से रहित ईश्वर है। ऐसा ईश्वर निरवयव तथा लीरूपं होने से ही श्रप्रत्यक्ष (प्रधानम्) प्रधान और परमाणुश्रों को (अधिष्ठातु' ) प्रवृत्त करने में (न ईश:) संमर्थ नहीं है और (चेल्) यदि (तनु अक्षवत्वम्) ईश्वर को शरीर इन्द्रियादि ( स्यात् ) हैं तो (सुचरित दुरितोद्भूतभोग प्रसंगः) ईश्वर में भी जीव की तरह पुण्य पाप की उत्पत्ति से सुख दुः ख का भोग् प्राप्त होगा; क्योंकि शरीर श्रादिकों को भोग की ही सामग्री नियम से माना है । (दुःखाढधम्) दुःख प्रधान जगत् को (कुर्वतः ) करते हुए (श्रस्य) अनवस्था के भय से अन्य किसपि नियंता से रहित ऐसे स्वतंत्र इस ईश्वर को (विषमा चार नैघूरय दोषः प्रसरति) विषम सृष्टि करना और निर्दयता यह दोनों दोष प्राप्त होंगे । भाव यह है कि सृष्टि में कोई प्राणी सुखी प्रकट करके तथा कोई दुःखी प्रकट करके, कोई देवता वना दिया तथा कोई श्रसुर बना दिया, कोई मनुष्य बना दिया कोई गौ बना दिया, कोई घोड़ा बना दिया तथा कोई राजा श्रौ. कोई प्रजा बना दिया । इस प्रकार नाना प्रकार विना ही कारण से भेदयुक्त संसृष्टी रचने से ईश्वर में विषमता का दोप प्राप्त होगा और श्रतिदुःखी प्राणियों की रचना करने से निर्दयता का दोष्य प्राप्त होगा । इन उक्त दोनों दोषों के निवृत्त करने के लिये (कर्मेप्सी: ) इस ईश्वर को प्राणिश्रों को सुख दु:ख भोग प्राप्त करने में प्राणिश्रों के कम की श्रपेक्षा अंगीकार करने पर (चक्रकाऽवस्थिति हति विफलत्वान्यथा सिद्धयः स्युः) चक्रक ईश्वर स्वीकार की निष्फलता तथा प्रथक् निमित्तकारण मात्र ईश्वर के विना ही जगत् की सिद्धि, ये सर्व दोष प्राप्त होंगे । जहां प्राणियों के कम से ईश्वर की विविध जगत् रचना में प्रवृत्ति होगी वहां ईश्वर की प्रवृत्ति से फिर उस प्रधान श्रौर परमाणुश्रों की प्रवृत्ति द्वारा जगत् की सृष्टी होगी और उम्