पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/४१

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प्रकरण १ श्लो० १८ [ ३३ अभाव रूप है तो तुम वादियों के मत में अपसिद्धांत प्राप्त होगा अर्थात् उनके सिद्धांत का ही बाध होगा, और यदि पुरुषप्रधान के ऐक्य ज्ञान का नाम ही अविवेक है तो वह भी संभव नहीं, क्योंकि वास्तव में भिन्न भिन्न पदार्थो की एकता भी वास्तव नहीं होती । यदि वह एकता मिथ्या है ऐसा मानीगे तो तुम वादिश्रों के मत में फिर अपसिद्धांत प्राप्त होगा, क्योंकि मिथ्यात्व का तुम्हारे मत में अंगीकार ही नहीं है और विचार भी यहां कर्तव्य है कि (अविवेकःकस्य) वह अविवेक प्रकृति को है वा पुरुष को है ? वह अविवेक दोनों में से किसी को भी नहीं बन सकता, क्योंकि प्रधान जड़ होने से अविवेक का आश्रय नहीं हो सकता और पुरुष असंग होने से अविवेक का श्राश्रय नहीं हो सकता । ( अथ ) उक्त विचार के अनन्तर और विचार किया जाता है कि (सः) सो अविवेक (भोग हेतु कथं भवेत् ) पुरुष असंग होने से उसके भोग का कारण किस प्रकार हो सकता है ? नहीं हो सकता । अन्यथा सर्वथा असंगत्व सिद्धांत नाश को प्राप्त होगा। अब मोक्ष के कारणरूप से तुम लोगों ने जो विवेक माना है (विवेकः कस्य स्यात्) वह विवेक किसको हाता है ? प्रधान को होता है वा पुरुष को ? दोनों में से किसी को भी नहीं हो सकता, क्योंकि प्रधान जड़ है और पुरुष सर्वथा असंग है। (तेन ) फिर उनके विवेक से (किं स्यात् ) क्या फल होगा ? भाव यह है कि पुरुप असंग होने से उससे बंध का संबंध ही नहीं है जिसकी निवृत्ति विवेक का फल होगा । इस लिये सांख्यकादी के मत में विवेक भी निष्फल है । (इति ) इस प्रकार (विमृशतः) विचार करने से (ब्रह्मणोपि दुर्वचम् ) ब्रह्मा को भी यह कपिल का मत निरूपण करना कठिन है।॥१८॥ ३ स्वा. सि