पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२४

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स्वाराज्य सिद्धिः

स्वाराज्य सिद्धि इसका (परम्परा से) फल है, परन्तु मोक्ष ती ज्ञान से ही होता है। शशिनी कभी भी सिंह वालक को जन्म नहीं

(पैत्रोलोकः) पितृलोक (क्रतुभि: ) नित्य नैमित्तिक याग आदिक कर्मो से (अधिगम्यः) प्राप्त किया जाता है, और तैसेही (विद्यया) उपासना से (देवलोकः) स्वर्गलोक (अधिगतः ) प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार श्र ति वचन से निश्चय किया गया है (यद्वा ) अथवा, ( तयोः) उस विद्या छऔर कर्म का (साध्यम्) फल (स्मार्तम्) ‘कषायं पक्ति कमर्माणि’ इत्यादि स्मृति द्वारा कहा हुआ (चेतः कषाय क्षपणम्) राग द्वेष आदिक संस्कार रूप अन्तःकरण गत मल का नाश ही (इह) विवेकी पंडित मंडल में (श्रस्तु) अभिमत हो ! अथवा, (यज्ञेनेत्यादि वाक्यात्) यज्ञ करके तथा दान करके वेदन की इच्छा की अर्थात् ज्ञान की इच्छा को करते हैं, इत्यादिक वेद के वचन से (विविदिषा) ज्ञान की इच्छा (वेदनवा) अथवा ज्ञान ही (तत्फलम्) उन नित्य आदिक कर्मो का फल (भवतु) हो; क्योंकि यज्ञ आदिकों के अन्वय का विविदिषा में श्रात्मं ज्ञान की इच्छा में श्रौर पदार्थ ज्ञान की इच्छा में विक्रकल्प है । तथापि (अमृतत्वम् ) मोक्ष तो (ज्ञानादेव) ज्ञान से ही होता है इस लिये कम मोक्ष की साधनता की परंपरा में होने पर भी वे साक्षात् साधन नहीं हैं, (हेि) क्योंकि वस्तु स्वभाव प्रबल है। (शशतकवधुः) शशे की स्री अर्थात् खरगोश की मादा शशी (सिंह पोतम्) सिंह के बालक को (न प्रसूते) उत्पन्न नहीं करती, किंतु खरगोश को ही उत्पन्न करती है। तैसे ही कर्म उपासना भी उक्त फलों को ही उत्पन्न करते हैं, मोक्षको नहीं ॥९॥