पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२२७

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प्रकरण ३ श्ला० ५ [ २१९ उत्पन्न हुई अखंडाकार रूप वृत्ति से ब्रह्म का श्रज्ञान भी नष्ट होजाता है, यह अर्थ दिखलाते हैं अपि चावृतार्थ विषयापरोचक्षधीचसा च भग्न मनुभूयते तमः । उपदेशमात्रमुपवण्य तत्। पुनः श्रुतिराद्द दर्शयति पारमित्यपि ।।५।। श्रावृत अर्थ के विषय से परोक्ष ज्ञान होता है परन्तु उपदेश से अज्ञान की निवृत्ति का अनुभव हुआ है, फिर उस श्रुति में पार का दिखलाने का कथन है ॥५॥ ( श्रावृतार्थ विषया परोक्षधीः श्रपिच ) परोक्ष ज्ञान अज्ञाना घृत्त अर्थ विषयक भले रहे, (वचसा च तमः भग्नं अनुभूयते) तथापि विद्वानों ने महा वाक्य द्वारा ब्रह्म विषयक श्रज्ञान की निवृत्ति का अनुभव किया है । (उपदेश मात्रं उपवएर्य ) क्योंकि छांदोग्योपनिषत् की श्रुति भी ‘योवै भूमा तन् सुख नाल्पे सुग्व मस्ति' अर्थात् जो महान् निरतिशय है सो सुख है भूमा को छोड़ कर सब अल्प है उसमें सुग्त्र नहीं है, इस प्रकार उपदेश मात्र कह करके (पुन: तन् श्रुतिः पारं दर्शयति इत्यपि श्राह्) अनन्तर घक्ष छांदोग्योपनिपकी श्रति ही ‘तस्मै मृदित कपायाय तमम: पारं दर्शयति भगवान् सनत्कुमार: अथांत ज्ञान वैराग्य आदिक द्वारा रागद्वेप आदिक मल से रहित उस नारद के प्रति भगवान् सन् त्कुमार ने श्रज्ञान रूप तम से पार को प्रथात् परमार्थ तन्त्व को दिश्वलाया, इस प्रकार कहती है। भाव यह है कि महा वाक्य के उपदेश से ब्रह्म के श्रज्ञान की निवृत्ति होजाती है। इसके लिये भी रक्त भुति प्रमाण है।५॥